| ओ३म् |
वैदिक सिद्धांतो पर आधारित
"दो मित्रो की बातें" - पंडित सिद्ध गोपाल कविरत्न
वैदिक सिद्धांतो पर आधारित
"दो मित्रो की बातें" - पंडित सिद्ध गोपाल कविरत्न
श्राद्ध करना चाहिए या नहीं?
कमल - मित्र, आज यह बताओ, कि श्राद्ध करना चाहिए या नहीं ?
विमल - श्राद्ध करना चाहिए । जीवित माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी, गुरु आचार्य तथा अन्य विद्वानों एवं तत्ववेत्ता विद्वान लोगों की अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सेवा करनी चाहिए इसी का नाम 'श्राद्ध' है।
कमल - 'श्राद्ध' तो मरे हुए पितरों का होता है, जीवित का भी कही श्राद्ध होता है?
विमल - पहले यह सोचो 'पितर' शब्द का अर्थ क्या है? पितर का अर्थ है रक्षा करने वाला । रक्षा तो वहीं कर सकता है जो जीवित हो । जीवित ही अपनी सन्तानों को उपदेश दे सकते हैं, और अपने जीवन के अनुभव द्वारा संसार के व्यवहारों का ज्ञान करा सकते हैं । जीवित ही स्वसंतानो की सर्व प्रकार रक्षा कर सकते हैं मरने पर, तो पितर, पितर ही नहीं रहता, क्योंकि पितर न तो आत्मा है और न शरीर है । आत्मा और शरीर के संयोग विशेष का नाम है । जब मृत्यु ने दोनों का सम्बन्ध छुडा दिया तो पितर रह कहाँ गया? यदि आत्मा का नाम पितर हो तो आत्मा नित्य और अविनाशी न रहेगा, नाशवान हो जायगा । क्योंकि पितर मानने पर उसमें आयु का और बड़े का भेद मानना पडेगा । एक आत्मा की उत्पत्ति पहले माननी होगी, दूसरे आत्मा की उत्पति पश्चात माननी होगी। यदि ऐसा न मानोगे तो 'पितर' शब्द का आत्माओ से सम्बन्ध ही न जुड़ेगा । जब सम्बन्ध ही न जुड़ेगा, तो श्राद्ध किया किसका जाएगा? फिर आत्मा को तो सभी लोग अविनाशी मानते हैं, अत: उसमें आयु का और छोटे, बड़े का भेद ही नहीं हो सकता। रहा शरीर, उसको भी 'पितर' नहीं कह सकते । प्रथम तो आत्मा के निकलते ही शरीर की 'शव' संज्ञा हो जाती है, दूसरे यदि शरीर ‘पितर' होता भी तो उसे दबाने या जलाने वाले को भारी पाप लगता। क्योंकि मरने पर या तो शरीर दबाया जाता है या जला दिया जाता है । किसी पितर को जमीन में दबा देना या जला देना कोई पुण्य का काम नहीं हो सकता । परन्तु मृतक शरीर को दबाना या जलाना लोग पुण्य समझते हैं । वास्तव में नाते रिश्ते और पितर आंदि संबन्ध इस संसार से ही सम्बन्ध रखते हैं । मरने पर न कोई किसी का पितर है न कोई किसी की सन्तान है । सब जीव अपना-२ कर्म-फल भोगने के लिए संसार क्षेत्र में आते हैं। शरीर धारण करने पर एक दूसरे से अनेक प्रकार के सम्बन्ध जुड़ जाते हैं । यदि वहीं मरने के पश्चात् भी जीवो के साथ माता-पिता, बहिन-भाई आदि के सम्बन्ध बने रहते हैं तो पुनर्जन्म में माता का पुत्र से, बहिन का भाई से, बेटी का बाप से विवाह होना सम्भव हो जायेगा । इसलिए जीव से माता-पिता आदि का सम्बन्ध नहीं है, जीव और शरीर के संयोग विशेष से सम्बन्ध है । अत: श्राद्ध जीवितों का ही होता है ।
कमल - वर्ष भर में १५ दिन श्राद्ध के निश्चित हैं कभी किसी पितर का श्राद्ध किया जाता है, कभी किसी का किया जाता है । पितर लोग सूक्ष्म शरीर धारण करके श्राद्ध के दिनों में आते हैं और ब्राह्मणों के साथ ही भोजन करते हैं । यदि कभी पितृ लोक से पितर न भी आ सके तो ब्राह्मणों को खिलाया हुआ भोजन उन्हें मिल जाता है ।
विमल - जब मैं बता चुका हूँ कि 'पितर' नाम आत्मा या शरीर का नहीं है, आत्मा और शरीर के विशेष सम्बन्ध का नाम है । फिर यह कहना कि पितर सूक्ष्म शरीर धारण कर भोजन करने आते हैं, सरासर हठ और अविवेक का परिचय देना है । अच्छा चलो थोडी देर के लिए मान भी ले कि पितर सूक्ष्म शरीर धारण कर आते भी हैं, परन्तु यह तो बताओं बिना स्थूल शरीर के वे भोजन कर कैसे लेते है, क्या सूक्ष्म शरीर से भोजन कर सकना सम्भव है? और जब ब्राह्मणों के साथ भोजन करते है तो पहले पितर खाते हैं या पहले ब्राह्मण खाते है? यदि ब्राह्मण पहले खाते है तो पितर झूठा खाते है । यदि दोनो मिलकर खाते है तो एक दूसरे का झूठा खाते हैं । झूठा खाना स्वास्थ्य और सिद्धान्त दोनों दृष्टियों से निन्दनीय है । अच्छा साल भर में १५ दिन ही क्यों निश्चित है? क्या साढे ग्यारह महीने उन्हें भूख नहीं लगती? क्या १५ दिन के भोजन से ही साल भर तक तृप्त बने रहते है? क्या ऐसा हो सकता है तो किसी मनुष्य को १५ दिन खिलाकर साल भर तक बिना भोजन के जीवित रहता हुआ दिखाओ । और १५ दिन भी कहाँ ? श्राद्ध के १५ दिन निश्चित है, इसमें भी केवल एक दिन पितरों के परिवार वाले निकालते हैं । दूसरे यदि ब्राह्मणों को खिलाने से मृतक पितरों को भोजन पहुँच जाता है, तो भोजन करने पर ब्राह्मणों का पेट क्यों भर जाता हैं ब्राह्मणों को तो भोजन करने पर भी भूखा ही रहना चाहिए । जब भोजन उन्होंने पितरों को पहुँचा दिया तो फिर उनका पेट कहाँ भरा? श्राद्ध खाने वाले ब्राह्मणों से जरा यह पूछ लिया करो कि जिन पितरों को भोजन पहुँचाना है, वे हैं कहाँ? साथ ही वह रोगी है या तन्दुरुस्त हैं? यदि वह रोगी ही हो तो फिर उन्हें हलुआ, पुरी और खीर से क्या प्रयोजन है? उन्हें कड़वी दवा और मूँग की दाल का पानी चाहिए । भारी भोजन से तो वह और अधिक रोगी हो जायेंगे। जब किसी को यह पता नहीं कि मृत्यु के पश्चात पितर आत्मा किस योनि में गया है और किस अवस्था में है, तो खीर, पूड़ी ब्राह्मणों द्वारा भेजने का मतलब ही क्या है? यदि श्राद्ध के दिनों में किसी का पितर किसी योनि से स्वयं ही सूक्ष्म शरीर से भोजन करने आए तो जिस योनि से आयेगा उसकी तो मृत्यु हो जानी चाहिए । थोडा और विचारो कि एक आत्मा तत्व-ज्ञान प्राप्त करके मुक्त हो गया, उसे संसार के भोजन की क्या चिंता? एक आत्मा कर्म वश शेर या भेड़िया बना हुआ है, दूसरा विष्ठा या नाली का कीडा बना हुआ है. इन प्राणीयो का हलुआ और पूडी से क्या काम चलेगा? प्रत्येक प्राणी का अपना भिन्न-२ प्रकार का स्वादिष्ट भोजन है । सबका मनुष्य जैसा भोजन नहीं होता ।देखो! यदि कोई आदमी किसी आदमी के पास पत्र डाल रहा हो; परन्तु उसका पता न जानता हो, सारा मजमून लिखकर बिना पते का पत्र लैटरबक्स में छोड़ दे तो क्या वह उसकी अक्लमन्दी होगी और क्या यह पत्र उस आदमी के पास पहुँच भी जायेगा? कदापि नहीं । फिर बिना पता निशान के ब्राह्मणों को खिलाने से पितरों के पास कैसे भोजन पहुंच जायेगा यह तो कोरा अन्धविश्वास है । एक व्यक्ति को खिलाने से अगर दूसरे व्यक्ति के पास भोजन पहुँच जाता तो परदेश जाने वाले को भोजन बाँधकर ले जाने की आवश्यकता ही क्या थी ? घर पर ब्राह्मणों को खिला दिया जाता परदेश जाने वाले का पेट स्वत: भर जाता । अतएव मृतक पितरों का श्राद्ध करना बिल्कुल व्यर्थ और अपने आपको धोखा देना है ।
कमल - मित्र, आपने तर्क द्वारा यह सिद्ध किया है कि मृतक पितरो का श्राद्ध नहीँ होता और न एक का दिया दूसरे को मिलता है, परन्तु मुझे यह तो बताओं किसी पुत्र का पिता ऋणी होकर मर जाता है । वह ऋण का पाप अपने ऊपर ले गया है । पुत्र थोड़े समय बाद धनवान हो जाता है और वह पिता का ऋण चुका देता है । अब बताओं मृतक की आत्मा ऋण रुप पाप से मुक्त हुई या नहीं? जब पुत्र ने कर्जा चुका ही दिया फिर पिता ऋणी रहा ही कहाँ ? जब पुत्र द्वारा पिता की आत्मा ऋण के पाप से मुक्त हो सकती है तो पुत्र द्वारा ब्राह्मणों को भोजन कराने पर पिता की भोजन सम्बन्धी तृप्ति क्यों नहीं हो सकती?
विमल - तुम्हें निश्चय पूर्वक जानना चाहिए कि पिता के कर्म का फल पुत्र को और पुत्र के कर्म का फल पिता को कभी नहीं मिलता । मनुष्य जो भी अच्छे बुरे कर्म करता है उसके संस्कार उसका सुख़-दुख रुप 'योग' बनाते है और यह भोग बिना भोगे नहीं टल सकता। लौकिक दृष्टि से पुत्र पिता का ऋण तो चुका देगा, लेकिन जहाँ तक के संस्कार जो पिता की आत्मा पर पडे हैं, उसे पुत्र कैसे मिटा सकेगा ? वह तो उसके बस की बात नहीं । किसी भी मनुष्य के मन पर संस्कार उसी की करनी से पड़ते है और उसी की करनी से धुल सकते हैं । उन्हें दूसरा कैसे धो सकता है? पुत्र लेन-देन की दुनिया का तो इलाज कर लेगा । परन्तु पिता की सूक्ष्म शरीर से सम्बन्ध रखने वाली दुनियाँ का इलाज कैंसे कर सकेगा । यदि यह मान लिया जाय, कि ऋण चुका देने से पिता की आत्मा पर पडे हुए ऋण के संस्कार भी नष्ट हो जाते हैं तो जो पिता करोडों रुपयों की संपत्ति धर्म से कमा कर मर गया है और धर्म से धन कमाने के संस्कार साथ ले गया है परन्तु उसका पुत्र नालायक निकला, उसने पिता के धर्म से कमाए हुए धन को शराब-खोरी और दुराचार आदि में उड़ा दिया । इस पाप से उनकी सर्वत्र निन्दा हो रही है । अब बताओं, उसका फल मृतक पिता की आत्मा को मिलेगा या नहीं? क्योंकि पुत्र ने पिता के धन से ही पाप किया है! यदि पिता के कमाए हुए धन से पाप करने पर पिता की आत्मा को पाप नहीं लग सकता, तो पिता के लिए ऋण को चुकाने से पिता के ऋण के संस्कार कैसे टल जायेंगे? पिता का ऋण तो पुत्र इसलिए चुकाता है कि जहाँ यह देनदार है, वही लेनदार भी है! जब पुत्र पिता की सम्पति लेने का अधिकारी है तो देने का अधिकारी कौन होगा? जो लेगा वही देगा भी यह तो मनुष्य समाज का एक नियम है, जो चल रहा है । किन्ही-२ देशों में यह नियम नहीं भी है । योरुप के कई देशों में यह नियम नहीं है । उन देशो में संयुक्त परिवार की प्रथा नहीं है । माता-पिता सन्तान का तब तक पालन करते है जब तक उनकी सन्तान स्वतन्त्रता के जीवन व्यतीत करने योग्य नहीं बन जाती | जहाँ योग्य हुई फिर माता-पिता और सन्तान का कोई वास्ता नहीं रहता । न कोई किसी का लेनदार रहता है न कोई किसी का देनदार । वहाँ ऋणं चुकाने न चुकाने का कोई प्रश्न ही नहीं है । वहाँ प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्जे का स्वयं ही जिम्मेदार है । इसलिए यह कहना कि ऋण आदि का पिता की आत्मा पर चढ़ा हुआ पाप पुत्र धो देता है, सर्वथा मिथ्या है । इस सृष्टि में कौन किसका ऋणी है और किस में ऋणी है- इसकी व्यवस्था भगवान ही जानता है और वही एक दूसरे का ऋण चुकाने की कर्मानुसार व्यवस्था करता है । सृष्टि के बहुत से काम किसी के लिए साध्य हैं ओंर किसी के लिए साधन हैं । परन्तु यह निश्चित है कि एक के किये हुए कर्म का फल दूसरे को नहीं मिलता। देखो! श्राद्ध के दिनों को 'कनागत' या 'कर्णागत' भी कहा जाता है । एक पौराणिक गाथा है- सुवर्णदान करने वाले कर्ण को स्वर्ग में स्वर्ण ही मिला । जब उसकी भूख दूर न हुई तो उसने १५ दिन छुट्रटी ली और मृत्यु लोक में आकर ब्राह्मणों को भोजन कराया तब स्वर्ग में उसको अन्न खाना सम्भव हुआ । कर्ण लौटकर आने से ही 'कनागत' या 'कर्णागत' नाम पडा । यद्यपि यह कथा सृष्टि क्रम के विरुद्ध होने से मिथ्या है, तथापि उस कथा से यह परिणाम निकाला जा सकता है, कि अपने कर्मों का फल अपने को ही भोगना पड़ता है । कर्ण स्वयं ही स्वर्ग से लौटा और स्वयं अन्न दान किया, तब अन्न खाने को मिला, नहीं तो कर्ण के संबंधी मृत्यु लोक में ब्राह्मणों को खिला देते स्वर्ग में कर्ण को प्राप्त हो जाता |
कमल - अच्छा मित्र, अगर मृतक पितरों को भोजन नहीँ मिलता न सही, परन्तु मृतक पितरों के नाम पर भोजन कराने में हानि ही क्या है? इसी बहाने कुछ दान बन जाता है । उनकी यादगार में कुछ न कुछ पुण्य हो ही जाता है |
विमल - हानि क्या? हानि यह है कि वैदिक सनातन मर्यादा का नाश होता है । यदि कहो क्यो! इसलिए कि-'पितृयज्ञ' अर्थात् पितरों का सत्कार ‘नित्य कर्म' के अन्दर आता है । ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, अथितियज्ञ, बलिवैश्वयज्ञ तथा पितृयज्ञ - इन पाँच यज्ञों को यथाशक्ति नित्य ही करना चाहिए । ऐसी वैदिक शास्त्रों की आज्ञा है । यदि मृतक श्राद्ध की १५ दिन की तिथियाँ निश्चित की जाती हैं और उसका नाम 'पितृपक्ष' रखा जाता है, तो नित्य मर्यादा का खंडन हो जाता है । मृतक श्राद्ध तो वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार भी नहीं हो सकता क्योंकि पुत्र जब ब्रह्मचर्य आश्रम में होगा, तो पिता गृहस्थाश्रम में होगा । इसी तरह जब पुत्र गृहस्थाश्रम में होगा तो पिता वानप्रस्थ में होगा इसी तरह जब पुत्र वानप्रस्थ में होगा, तब पिता संन्यास में होगा, और जब पिता की मृत्यु का समय होगा तब पुत्र संन्यासी होगा । अब सोचो सन्यासी कैसे मृतक श्राद्ध कर सकेगा? क्योंकि उसने तमाम सकाम भावनाओं का त्याग कर दिया है, तभी तो संन्यासी बना है। संन्यासी से पारिवारिक संम्बन्ध रहता ही नहीं न वह किसी का पिता रहता है न पुत्र, फिर श्राद्ध कैसा? और संन्यासी तो परिवाजक होता है । सदुपदेश करते हुए भ्रमण में कब (किसी तिथि को) और कहाँ मृत्यु हो गई, इसका पता भी पिता पुत्र तथा अन्य घर वालो को कैसे लगेगा? अत: किसी प्रकार भी मृतकों का श्राद्ध सिद्ध नहीं होता । रही दान और पुण्य हो जाने की बात सो पितरों यानी बुजुर्गों की यादगार में खिलाना-पिलाना या दान देना बुरा नहीं, यदि पात्र और कुपात्र को देखकर ऐसा किया जाये । परन्तु जो काम बहाने बनाकर किया जाता है, उसका परिणाम शुभ नहीं निकलता, क्योंकि हृदय में सच्चाई न होने के कारण दान करने वाले की आत्मा पर अच्छा संस्कार नहीं पड़ता । जो मन में हो, वही वाणी पर हो तथा वैसा ही कर्म किया जाये, तब वह पुण्य का काम कहलाता है । बहाने से किया दान न दान है और न पुण्य, पुण्य है। जो भी काम होना चाहिए, सद्भावना और सच्चाई से होना चाहिए और बिना-विचारे दान-पुण्य करना तो संसार में आलसियों और निक्कमे लोगो की तादाद बढ़ाना है, और कुछ नहीं । यदि अपने पूर्वजों की यादगार में बनाना, पिलाना या दान देना आवश्यक है तो क्या आवश्यक है कि क्वार के महीने में ही १५ दिन की निश्चित तिथि में भोजन कराया जाये और दान दिया जाये? और वह भी केवल ब्राह्मणों को ही कराया जाये? क्यो नहीं नंगे, भूखे, लंगड़े, लूले, अपाहिज व्यक्तियों को चाहे वे किसी देश और जाति के हों उन्हें भोजन और दान दिया जावे? पितरों की यादगार में तो बात तब ठीक हो सकती है जब उसी तारीख के आने पर उनकी यादगार में कुछ किया जाये । जैसे रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी उसी तारीख में मनाई जाती है जिस तारीख में उनका जन्म हुआ है । इसी प्रकार पितरो की यादगार उसी तारीख में मनाई जाये जिस तारीख में है मरे हैं तब तो मान लिया जाये कि हाँ यादगार के लिए श्रद्धा दिखाई जा रही है, अन्यथा मृतक श्राद्ध ढोंग ही है ।
कमल - मित्र, आपने इसका खूब विवेचन किया धन्यवाद । अब मैं यह पूछना चाहता हूँ कि इस यज्ञ के करने से क्या लाभ है, लोग घी और सामग्री अग्नि में क्यों फूंक देते हैं?
विमल - इसका उत्तर कल दूँगा ।
| ओ३म् |
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