Sunday, June 22, 2014

क्या समस्त सृष्टि ईश्वर से बनी है?

| ओ३म् |

वैदिक सिद्धांतो पर आधारित 

"दो मित्रो की बातें" - पंडित सिद्ध गोपाल कविरत्न


क्या समस्त सृष्टि ईश्वर से बनी है?


कमल - क्या यह सारा संसार ईश्वर का ही रूप है?
 

विमल - नहीं, यह संसार प्रकृति का रुप है! ईश्वर तो रुप से रहित है ।


कमल - बड़े-२ बुद्धिमान और दार्शनिक विद्वान यही कहते हैं कि सारा संसार ईश्वर से ही बना है । ईश्वर से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी और पृथ्वी से अन्न, औषधियाँ तथा अनेक प्रकार के प्राणी उत्पन्न हुए हैं ।



विमल - यह बात गलत है, ईश्वर सृष्टि का उत्पत्ति कर्ता है स्वयं कार्य नहीं है । सृष्टि उत्पत्ति के ३ ही कारण है और तीनों ही पदार्थ अनादि हैं- ईश्वर, जीव, प्रकृति । यह तीनों पदार्थ अनादि हैं । ईश्वर निमित्त कारण हैं, प्रकृति उपादान कारण है और काल, दिशा आदि साधारण कारण हैं, क्योंकि सृष्टि के समस्त कार्यो में यह सामान्य हैं । निमित्त कारण वह है जिसके बनाने से कोई चीज़ बने न बनाने से न बने । उपादान कारण वह है जिसके होने से कोई चीज बने, न होने से न बने | जैसे सुनार ने जेवर बनाया । अब सुनार इसमें कर्ता यानी निमित्त कारण हुआ और सोना उपादान कारण हुआ । सुनार के बनाने से जेवर बने न बनाने से न बनते, इसी तरह सोने के होने से जेवर बने न होने से न बनते । देखो! यदि ईश्वर से आकाश बनता तो आकाश में 'शब्द' गुण है। ईश्वरका गुण शब्द है नहीं, तो आकाश में शब्द कहाँ से आया? कारण के गुण कार्य में अवश्य आते हैं । सोने से जेवर बनाये तो सोने के गुण जेवर में अवश्य आयेंगे | जब ईश्वर में ही शब्द नहीं है, आकाश में कहाँ से आ जाएगा? अभाव से भाव भी नहीं होता । अतएव सिद्ध है, ईश्वर से आकाश नहीं बना । इसी प्रकार आकाश से वायु नहीं बनी । क्योंकि वायु का धर्म स्पर्श है और आकाश में स्पर्श नहीं है तो स्पर्श गुण वायु में कहाँ से आ गया? वायु से अग्नि नहीं बनी, क्योंकि अग्नि का गुण रुप है और रुप वायु में है नहीं, फिर अग्नि में कहाँ से आ गया? इस प्रकार समस्त तत्वों को समझ लो । यह सब तत्व, सत, रज, तम वाली मूल प्रकृति से ही बने हैं और इन्हें निमित्त कारण परमात्मा ने ही बनाया है।



कमल - परमात्मा सृष्टि बनाने में जब प्रकृति का सहारा लेता
 है, तो प्रकृति का मुहताज हुआ- क्योंकि वह बिना प्रकृति के संसार
नहीं बना सकता?



विमल - परमात्मा प्रकृति का सहारा नहीं लेता, बल्कि प्रकृति को ही संसार के रुप में बिना किसी का सहारा लिए कर देता है । अपना कार्य करने में किसी साधन का मुहताज नहीं है । प्रकृति साधन नहीं बल्कि 'कर्म' है जिस पर परमात्मा की क्रिया का फल गिरता है । जैसे मोहन ने सोहन को मारा, तो मोहन कर्ता है, सोहन 'कर्म' है और मारना क्रिया है । कोई कहने लगे कि मोहन सोहन को मारने में सोहन का मुहताज है । मैं पूछता हूं यह कहना क्या अक्लमन्दी की बात है?  क्या बिना मोहन के सोहन को मार देना कहना ठीक बन भी सकता था? यदि मै कहूँ मैंने कमल को पाँच रुपये दिये हैं तो कोई मुझसे कहने लगे, तुम कमल को रुपये देने में रुपयों की मुहताज कैसे? शायद तुम्हारा मतलब यही है, कि मरने वाला न हो और ईश्वर उसे मार दे । खाने वाला न हो और ईश्वर उसे खिला दे, रोने वाला न हो और ईश्वर रुलादे । प्रकृति न हो और प्राकृतिक जगत् बना दे । भला इसे पागलपन के सिवाय और क्या कहा जायेगा?



कमल - मैं तो सुनता हूँ, सृष्टि बनने के पूर्व ईश्वर ही ईश्वर था और कोई पदार्थ नहीं था । उसने अपनी इच्छा से दुनिया बनाई है ।



विमल - अच्छा ईश्वर ने सृष्टि क्यो बनाई? अपने लिए या अन्य के लिए? यदि कहो, अपने लिए तो मालूम हुआ, सृष्टि की जरूरत ईश्वर को थी । जिसमे जरूरत है उसे पूर्ण नहीं कहा जा सकता है । क्योकि जरुरत का होना ही अपूर्ण होने का सबूत है । यदि कहो जीवों के लिए बनाई तो ईश्वर के साथ जीव भी मानने पड़ेगे । फिर ईश्वर ही ईश्वर था यह बात गलत हो जायेगी ।



कमल - उसने अपनी लीला दिखाने के लिए सृष्टि को रचा है ।



विमल - उसने अपनी लीला किसे दिखाई?



कमल - अपने आपको, अपनी लीला दिखता है ।



विमल - अपने आपको अपनी लीला दिखाता है?



कमल - अपने आनन्द के लिये लीला दिखाता है ।



विमल - तो सृष्टि रुप लीला दिखाने के पहले उसमें वह आनन्द था या नहीं । यदि था, तो लीला दिखाने से आनन्द क्या हुआ? यदि नहीं था तो उसमें लीला के आनन्द की कमी तो स्वत: ही सिद्ध हो गई और जब लीला दिखाई तो सृष्टि रुप लीला के आनन्द की परमात्मा में वृद्धि हुई । जिसमें कमी और वृद्धि का दोष होता है, उस पदार्थ के गुण अनादि अनन्त नहीं होते। और जब गुण ही अनादि अनन्त नहीं है तो उनका गुणी जो ईश्वर है, अनादि अन्त कैसे हो सकत्ता है?



कमल - अच्छा, मैं यह मान लूँ की लीला दिखाना उसका स्वभाव है ।



विमल - ऐसे मानने में राग, द्वेष, सुधा, तृषा, भय, शोक, सुख, दुख, जन्म, मरण, अन्याय, चोरी, हिंसा, व्यभिचार, आदि गुण, अवगुण सब ईश्वर की लीला के ही धर्म मानने पडेंगे, क्योंकि सृष्टि रुपी लीला में यह सारी बाते है । फिर संसार में पाप, पुण्य, दुराचार, सदाचार, धर्म-अधर्म कोई पदार्थ न रहेगा। सब परमात्मा के स्वभाव के अंग बन जायेंगे । फिर तो वेद शास्त्र, यम नियम आदि साधन सब व्यर्थ हो जायेंगे | मानव जीवन का उददेश्य भी कोई न रहेगा। किसकी प्राप्ति के लिए घोर तपस्याये की जायें और कौन उन्हें करे, जब कि ईश्वर ने अपने आपको अपने स्वभाव से ही लीला दिखाई है । फिर कौन पापी और कौन पुण्यात्मा ? कौन सा कर्म और कौन-सा कर्मफल? सब व्यर्थ!



कमल - अच्छा आपके सिद्धान्त से परमात्मा ने सृष्टि क्यों बनाई?



विमल - जीवों के कल्याण के लिए परमात्मा सृष्टि की रचना किया करता है । वह न्यायी और दयालु है । उसके न्याय और दया का प्रकाशन सृष्टि उत्पत्ति द्वारा ही होता है उसका अपना कोई प्रयोजन नहीं, दया और न्याय करना उसका स्वभाव है ।



कमल - जब परमात्मा ने जीवो के कल्याण के लिये सृष्टि बनाई तो उसमें दुःख सुख और भलाई बुराई क्यों  है?



विमल - सृष्टि में जो भी भलाई बुराई मालूम देती है और सुख दुख मालूम देता है वह वास्तव में जीवों के अपने कर्मों  का परिणाम है । जीव अपनी अज्ञानता वश सृष्टि में दुख उठाता है । अन्यथा न सृष्टि में कोई बुराई है और न कोई दुख है । जीव अपनी अल्पज्ञता के कारण विपरीत कर्म करके दुख उठाते हैं और परमात्मा के न्यायानुसार अनेक योनियों धारण करते हैं । परमात्मा दुःख किसी को नहीं देता । दुख का कारण अज्ञान है, वास्तविकता को न समझना है |



कमल - क्या जीव परमात्मा ने नहीं बनाये?



विमल - जीव अनादि है ।



कमल - जब जीव और प्रकृति ईश्वर ने नहीं बनाये तो उसने इन पर अधिकार क्यों किया?



विमल - यह प्रश्न ऐसा ही है, जैसे कोई पाठशाला में विद्यार्थियों को देखकर कहे कि जब मास्टर ने इन विद्यार्थियों को पैदा नहीं किया तो इन पर अपना अधिकार क्यों रखता है जब प्रकृति अज्ञ, जीव अल्पज्ञ और परमात्मा सर्वज्ञ है, तो दोनों वस्तुओं पर सर्वज्ञ का प्रभाव स्वभाव से रहेगा। जैसे पाठशाला में विद्यार्थियों पर मास्टरों का नियन्त्रण होना विद्यार्थियों की उन्नति का कारण है वैसे ही सृष्टि रुप पाठशाला में जीवों का ईशवराधीन रहना जीवों की उन्नति का कारण है । परमात्मा रुपी मास्टर के वेद ज्ञान द्वारा जीव लौकिक और पारलौकिक उन्नति सम्पादित करते हैं ।



कमल - यदि यह मान लें कि जीवों को भी परमात्मा ने बनाया है, तो क्या आपत्ति आती है ।


विमल - ऐसा मानने पर जीव कर्म करने में स्वतन्त्र न रहेगा दूसरे भले बुरे कर्मों की जिम्मेदारी ईश्वर पर ही रहेगी । जीव पाप का भागी न माना जायेगा, क्योकि जीव को परमात्मा ने बनाया और भले बुरे कर्म करने की उसमें योग्यता रखी, तभी भले बुरे कर्म किये तो उसका अपना दोष क्या हुआ? जीव को बनाने के पहिले उसमें यह योग्यता रखता कि बुरे कर्म वह कर ही न सकता । अतएव जीव अनादि है और कर्म करने में स्वतन्त्र है और परमात्मा की व्यवस्था से कर्म फल भोगने में परतंत्र है ।



कमल - कुछ लोग कहते है, जीव ब्रह्म का ही अंश है?



विमल - अंश, अंशी का भाव सावयव यानी साकार और अनित्य पदार्थों में होता है । जीव ब्रह्म दोनों तत्व अनादि हैं ।

कमल - कुछ कहते हैं, जीव ब्रह्म से ही बना है और अन्त में ही ब्रह्म में लय हो जायेगा ।



विमल - ऐसा मानने पर जीव अनादि और सनातन नहीं रहता । हमेशा कार्य कारण में लय होता है, जैसे मिट्टी रुप कारण में घड़ा रुपी कार्यं लय हो जाता है । जीव ब्रह्म का कार्य नहीं है । वह स्वतन्त्र और नित्य है । जो नित्य है वह अपनी सत्ता खोकर किसी में लय कैसे हो जायगा ।



कमल - जीव है तो ब्रह्म ही, अपने को अज्ञानता से जीव समझता है?




विमल - इससे तो यह सिद्ध होता है, कि ब्रह्म में भी अज्ञान है । जब ब्रह्म ही अज्ञानता के वश जीव बना है तो फिर ज्ञान किससे प्राप्त करेगा? ब्रह्म से तो नहीं कर सकता, क्योकि ब्रह्म तो अज्ञान के काबू में आया हुआ है ।



कमल - क्या ब्रह्म से जीव नही बना? क्या अन्त में जीव ब्रह्म न बनेगा?




विमल - जो बनता है, वह ब्रह्म नहीं होता, ब्रह्म तो बे बनी वस्तु है, इसी तरह जीव भी नहीं बनता तभी तो दोनों तत्व नित्य हैं ।



कमल - कुछ लोग कहते हैं, यह संसार मिथ्या है ब्रह्म ही सत्य है, माया को अनिर्वचनीय कहते हैं । क्योंकि माया तीन काल में एक रस रहती नहीं, इसलिए सत् उसे कह नहीं सकते । और असत् इसलिए नहीं कहते कि उसका संसार में काम दिखाई देता है ।



विमल - संसार न सत् है न असत् है बल्कि अनित्य है, अर्थात् बदलने वाला है जो लोग माया को अनिर्वचनीय कहते हैं उनसे पूछना चाहिए की माया को किसी प्रमाण से मानते हो या बिना प्रमाण के ही मानते हो? यदि प्रमाण से मानते हो तब तो माया प्रमेय हो गई क्योंकि प्रमाता ने प्रमाण से जान लिया, उसका निर्वचन हो गया । यदि कहे बिना प्रमाण को मानते हैं तो 'माया है' यह जाना कैसे? इसलिए माया अर्थात् प्रकृति के कार्य अनित्य हैं और प्रकृति नित्य है ।


कमल - कुछ कहते है यह संसार भ्रम है, वास्तव में इसकी सत्ता नहीं है, जैसे रस्सी का साँप दिखाई देता है, सीप की चाँदी दिखाई देती है, इसी प्रकार ब्रह्म में माया की प्रतीति होती है, वास्तव में माया नहीं है । सीप में चाँदी नहीं, रस्सी में साँप नहीं, तो भी भ्रम हो जाता है, इसी प्रकार ब्रह्म में ही माया का भ्रम हो रहा है ।


विमल - यह भ्रम हो किसे रहा है, जब ब्रह्म के सिवाय और कोई चीज ही नहीं? क्या ब्रह्म में ब्रह्म को ही ब्रह्म का भ्रम हो रहा है! क्योंकि भ्रम किसी में किसी का किसी को होता है । दुसरे भ्रम समान वस्तुओं में होता  है जैसे रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है घड़े में नहीं, सीप में चाँदी का भ्रम हो सकता है गुलाब जामुन का नहीं । जब ब्रह्म चैतन्य और जगत् जड़ है तो असमान होने से भ्रम कैंसे होगा ? ब्रह्म निराकार जगत् साकार,  ब्रह्म नित्य जगत् अनित्य, ब्रह्म सर्वज्ञ जगत् अज्ञ, फिर भ्रम होगा कैसे?


कमल - क्या ब्रह्म के अलावा और वस्तुएँ भी हो सकती हैं?


विमल - यदि और वस्तुऐं न हो तो ब्रह्म कहा किसे जाये ब्रह्म का अर्थ है, बडा, जब छोटा ही नहीं तो बड़ा कैंसा? जब कड़वा ही नहीं तो मीठा कैसा ? दूसरे ब्रह्म आत्मा है, जिसका अर्थ है व्यापक । यदि व्याप्य न हो तो व्यापक होगा कैसे?


कमल - अच्छा दोस्त, इस विषय को अब यहीं समाप्त करते है | आपकी युक्तियों से यहीं समझ में आता है कि ब्रह्म, जीव और प्रकृति के नित्य मानने में ही सारी समस्यायें हल होती हैं । और कोई 'वाद' इस सृष्टि का सम्यक समाधान नहीं कर सकता । आपकी बडी कृपा हुई जो आपने इतने दिनों तक वार्तालाप करके मेरे समस्त संशय निवारण कर दिये । मैं आपका उपकार कभी न भूलूँगा ।

। ओ३म् ।

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