| ओ३म् |
वैदिक सिद्धांतो पर आधारित
"दो मित्रो की बातें" - पंडित सिद्ध गोपाल कविरत्न
वैदिक सिद्धांतो पर आधारित
"दो मित्रो की बातें" - पंडित सिद्ध गोपाल कविरत्न
ईश्वर का ध्यान कैसे हो?
कमल - लो मित्र मैं नियत समय पर आ गया, कल का प्रश्न हल करो । जब ईश्वर निराकार है तो उसका ध्यान कैसे हो?
विमल - ध्यान दो तरह का होता है, एक तो संसार के प्राणियों और संसार के पदार्थों का ध्यान, दूसरा सर्वव्यापक, सर्वनियन्ता इन्द्रियों से परे परम प्रभु परमात्मा का ध्यान । संसार से सम्बन्ध रखने वाली वस्तुओं का ध्यान तो उन्हें देखकर अथवा उनके वियोग होने पर होता है । जैसे एक मित्र को मैंने कलकत्ते में देखा उससे परिचय हो गया । फिर पाँच छ: साल के पश्चात् मैने उसे बम्बई में देखा । अब मुझे ध्यान आया कि यह वही मित्र है, जो मुझे कलकत्ते में मिला था । दूसरे वियोग होने पर ध्यान होता है - जैसे मेरे एक मित्र जिससे मुझे अत्यन्त प्रेम है, कहीं बाहर भ्रमण करने चला गया । अब मुझे उसका बार बार ध्यान आता है कि न जाने वह इस समय कहाँ होगा ? जब तक हम दोनों एक दूसरे को देखते रहते थे तब तक ध्यान का कोई सम्बन्ध ही नहीं था, क्योंकि जो चीज सामने है उसका ध्यान कैसा? जब उससे वियोग हुआ, तब उसका ध्यान जाने लगा । यह तो रहा सांसारिक वस्तुओं के ध्यान की बात । ईश्वर के ध्यान की बात इससे सर्वथा भिन्न है । ईश्वर के ध्यान का अर्थ है - मन को निर्विषय करना, अर्थात् मन और इन्दियों में फ़ैली हुई आत्मा की शक्तियों को आत्मा में ही एकत्र करना । जब तक मन और इन्दियों संसार के विषयों की ओर लगी हुई है तब तक ईश्वर का ध्यान आत्मा कर ही नहीं सकता । ईश्वर का ध्यान करने के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि मन और इन्द्रियों को अभ्यासपूर्वक विषयों की ओर जाने से रोका जाया यह याद रखना चाहिए - ध्यान योग के आठ अंगों में सातवाँ अंग है । पहिले यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा इन छ: अंगों का पालन करना आवश्यक है तब कहीं जाकर मनुष्य ध्यान का अधिकारी बनेगा । जब नियमानुसार छ: अंगों का पालन हो जायेगा तब ध्यान तो अपने आप लगने लगेगा । जब ध्यान छ: अंगों के पश्चात है तो मूर्ति के द्वारा पहले ही कैंसे हो जाएगा ?
कमल - मित्र, मन बड़ा चंचल है, यह निराकार में लग कैसे सकता है? इसको लगाने के लिये साकार पदार्थ का सहारा चाहिये । बिना साकार पदार्थ के मन में स्थिरता हो नहीं सकती ।
विमल - प्यारे और भोले मित्र मन तो स्थिर होता ही है निराकार में है, साकार में तो स्थिर हो ही नहीं सकता । क्योंकि साकार पदार्थ शब्द, स्पर्श, रूप, रस आदि विषयों वाले होते है इस कारण उन विषयों में फंसकर मन चंचल रहता है । यदि साकार पदार्थों में मन स्थिर होता, तो सारा संसार ही साकार है, सबका मन स्थिर हो गया होता । परन्तु ऐसा नहीं है । ज्यों-२ सांसारिक पदार्थों में मन फँसता जाता है त्यों-२ मानसिक चंचलता और अधिक बढ़ती जाती है । यदि गहराई से विचार करो तो मालूम होगा कि मन स्थिर नहीं हुआ करता । मन स्थिर होना तो मृत्यु है । मन या हृदय की गति के बन्द हो जाने का नाम ही तो मृत्यु है । मन टिका नहीं कि मनुष्य मरा नहीं, वास्तव में मन की बाहा वृत्तियों का अन्तर्मुखी हो जाना ही मानसिक स्थिरता है । जब तक मनुष्य जीवित है मनुष्य का मन गतिशील ही रहेगा ।
कमल - तो क्या जो लोग मूर्ति द्वारा ईश्वर का ध्यान करते हैं भूल में हैं । मेरा विचार तो यह है कि मूर्ति द्वारा मन की चंचलता दूर हो सकती है । इसलिये मनुष्य राम, कृष्ण आदि की मूर्तियाँ पूजते हैं ।
विमल - मूर्ति के द्वारा ईश्वर का ध्यान कभी भी नहीं हो सकता । मैं पहले कह चुका हूँ कि ध्यान का अर्थ है - मन का निर्विषय होना । मूर्ति में पाँचों विषय वर्तमान हैं । मोटे तौर पर देखो तो मूर्ति में रुप तो है ही । मेवा, मिष्ठान और दूध, जल जो चढ़ाया है उनमें रस वर्तमान ही है । पुष्प जो चढ़ाए जाते है उनमे गन्ध मौजूद ही है । घंटा घडियाल जो बजाते है उसमे शब्द होता ही है । मूर्ति स्वयं भी पाँच तत्वों से बनी हुई है, जिनका धर्म शब्द स्पर्श, रूप, रस और गन्ध हैं । फिर मूर्ति से मन की चंचलता कैसे दूर हो सकती है? यदि मूर्ति से मन की चंचलता दूर होती तो जिन श्रीकृष्ण की लोग मूर्ति बनाते हैं, वे श्री कृष्ण साक्षात अर्जुन के सामने मौजूद थे परन्तु अर्जुन के मन की चंचलता दूर नहीं हुई । वह श्रीकृष्ण महाराज से कहता हैं -
चंचल हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवदृढम् ।
तस्याहं निग्रह मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् । (गीता)
अर्थात् मन बडा चंचल, हठीला और दृढ़ है । इसे रोकना मैं वायु के समान अत्यन्त कठिन समझता हूँ। यह सुनकर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया-
असंशयं महाबाहो मनोदुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते। । (गीता)
अर्थात् है अर्जुन! इसमें सन्देह नहीं कि मन बडा चंचल और हठीला है, परन्तु अभ्यास और वैराग्य से वह वश में हो सकता है । जब असली श्रीकृष्ण की मूर्ति से अर्जुन का मन स्थिर न हुआ जब कि वह रात-दिन उसे देखता था, तो फिर नकली और जड़ पदार्थों से बनी हुई श्रीकृष्ण की मूर्ति से मन कैसे स्थिर हो सकता है?
कमल - तो क्या मूर्ति पूजा नहीं करनी चाहिये?
विमल - मूर्ति पूजा करनी चाहिए परन्तु बेजान अर्थात् जड़ मूर्ति की पूजा जड़ की तरह और जानदार अर्थात चेतन मूर्ति की पूजा 'चेतन' की तरह करनी चाहिये!
कमल - जड़ की पूजा जड़ की तरह, और चेतन की पूजा चेतन की तरह करनी चाहिए इसका मतलब क्या है, मै समझा नहीं?
विमल - "पूजा" शब्द के धातु संबन्धी और व्यावहारिक कई अर्थ हैं । जैसे पूजा का अर्थ है- सत्कार, आदर, पूजा का अर्थ है - किसी चीज का उचित प्रयोग, किसी चीज की उचित रक्षा, किसी को उचित दण्ड । अब सोचो मूर्ति की पूजा का क्या अर्थ है? जड़ मूर्ति की पूजा का अर्थ है- उस मूर्ति को साफ-सुथरा रखा जाय । सुरक्षित स्थान पर हो ताकि टूटने, फूटने न पाये, मैली-कुंचेली बेआब और बेकार न होने पावे । यहीं प्रयोग और उचित रक्षा ही जड़ मूर्ति की पूजा है । पूजा शब्द का अर्थ प्रत्येक पदार्थ को सिर झुकाना, पुष्प, पत्र, मेवा मिष्ठान्न आदि चढाना नहीं होता । जैसे किसी ने किसी से कहा - यह जो महात्मा है इनकी पेट पूजा कर दो | तो इसका क्या अर्थ होगा, यहीं कि इसको भोजन करा दो । यह अर्थ नहीं होगा, कि इनके पेट पर फूल, पत्ते, पानी, मेवा और मिष्ठान्न चढा दो। इसी प्रकार किसी ने किसी से कहा -- यह गुण्डा जो ज्यादा बकवास कर रहा हैं इसकी पीठ पूजा कर दो, तब यह मानेगा? अब इसका क्या अर्थ होगा? यह होगा कि इसकी पीठ में दस-पाँच डण्डे लगा दो । यह अर्थ नहीं होगा, कि इसकी पीठ पर फल-कूल और मेवा मिष्ठान्न चढादो । यहाँ एक स्थान पर पूजा का अर्थ भोजन कराना है, दूसरे स्थान पर डण्डे लगाना है, बस इसी प्रकार जड़ मूर्ति पूजा का अर्थ उसको सुरक्षित रखना होता है । उसके ऊपर सामग्री चढाना और नमस्कार करना नहीं होता । क्योकि उस बेजान मूर्ति में वह योग्यता नहीं है जो हमारी श्रद्धा भक्ति को समझ सके और मेंवा मिष्ठान्न तथा फल-फूल से लाभ उठा सके । जितनी चेतन मूर्तियां हैं जैसे माता-पिता, गुरु अतिथि, संन्यासी, उपदेशक तथा अन्य प्राणी वे सब मेवा, मिष्ठान्न, फल-फूल आदि के लाभ उठा सकते हैं । उनकी पूजा, फूल, फल, मेवा, मिष्ठान्न आदि विविध प्रकार के पदार्थों से करनी ही चाहिए । यहाँ पूजा का अर्थ 'आदर' या 'सत्कार' माना जायेगा ।
कमल - जब ईश्वर सब जगह है, तो मूर्ति में भी है, फिर क्यो न मूर्ति को पूजा जाए? पूजा करने वाले पत्थर को नहीं पूजते उसमें व्यापक परमात्मा को ही पूजते है ।
विमल - यह सत्य है कि ईश्वर सर्वत्र होने के कारण मूर्ति में भी व्यापक है । परन्तु यह आवश्यक नहीं है, कि सब जगह होने से सब जगहों में और सब चीजो में उसकी पूजा हो सकती है । देखो! पूजा करने वाला 'जीवात्मा' है । इसका (पूजन करने का) उद्देश्य यह है कि ईश्वर से मेल हो जाय । मेल वहाँ होता है, जहाँ मिलने वाले दोनों मौजूद हो । मूर्ति में ईश्वर तो है पर वहाँ जीवात्मा तो है ही नहीं, जिसे ईश्वर से मिलना है । फिर मिलाप हो तो कैसे? हाँ हर मनुष्य के अपने हृदय में जीवात्मा और परमात्मा दोनों ही उपस्थित हैं । वहीं दोनों का मेल अवश्य हो सकता है । अतएव जिस मनुष्य को ईश्वर से मिलना है उसे अपने हृदय में ही (मन और इन्दियों को वश में करके) ईश्वर की पूजा करनी चाहिए। देखों! ईश्वर सब जगहों में व्यापक है, यह जानकर भी क्या सब स्थानों का जल पीने के योग्य होता है? परमात्मा का वास शेर और साँप दोनों में है, मैं पूछता हूँ क्या शेर और साँप के पास जाना उचित होता है? इसलिये यह कहना कि परमात्मा मूर्ति में व्यापक है, इसलिए मूर्ति की पूजा करनी चाहिए, कोरी अज्ञानता और भोलेपन की बात है । परमात्मा मिश्री में है और विष में भी है, तो क्या विष को खाना चाहिए? हरगिज नहीं । खानी तो वही चीज चाहिए जो खाने योग्य है । मूर्ति पूजा करने वाले समझते तो यही हैं कि हम मूर्ति में व्यापक परमात्मा की पूजा कर रहे है, परन्तु वास्तव में मूर्ति द्वारा व्यापक भगवान् की पूजा होती नहीं । तुम कहोगे क्यों? इसलिए कि जिन पदार्थों को मूर्ति पर चढाया जाता है उनमें भी परमात्मा व्यापक है । जैसे आकाश घड़े में भी व्यापक है और ईट में भी । अब यदि कोई मनुष्य यह चाहे कि घडे में जो आकाश व्यापक है उसके ईंट मार दूँ तो उसकी यह सर्वथा भूल होगी। क्योंकि व्यापक होने के कारण आकाश को ईंट लग नहीं सकती, यदि ईंट उठाकर मारेगा भी तो घडा ही टूटेगा, आकाश नहीं । क्योंकि आकाश तो उस ईंट में भी है । इस प्रकार जो भी पुष्प, पत्र, मेवा, मिष्ठान्न मूर्ति में व्यापक परमात्मा पर चढाया जाता है, वह मूर्ति पर ही चढाना है, भगवान् पर नहीं । क्योंकि भगवान् तो उन पदार्थों में भी व्यापक है ।
कमल - मूर्ति पर फल, पुष्प आदि न चढाये जाये परन्तु उसको श्रद्धापूर्वक देखने से व्यापक परमात्मा और उसकी महिमा का ज्ञान अवश्य हो जाता है।
विमल - यह भी बिल्कुल उल्टी बाते है । ज़रा सोचो तो सही कि मूर्ति को देखने से व्यापक परमात्मा और उसकी महिमा का ज्ञान कैंसे हो जाता है? देखो! तिलों में तेल व्यापक है, परन्तु देखने वाले को क्या दिखाई देगा, तिल या तेल ? तिल ही तो दिखाई देगें । चाहे वह कितनी ही श्रद्धा व ध्यान से उसे क्यों न देखे । तेल कब दिखाई देगा, जब उन तिलों को तोड़ दिया जाय, कोल्हू में पेल दिया जाय । इसी प्रकार मूर्ति में भगवान् व्यापक है, परन्तु देखने वाले को मूर्ति ही दिखाई देगी भगवान नहीं । भगवान तो तभी दिखाई देगा, जब जड़ मूर्ति से नाता तोड दिया जाय और अपने आत्मा में उसकी खोज की जाय । रही ईश्वर महिमा के ज्ञान होने की बात, सो मनुष्य की बनाई मूर्ति में भगवान् की महिमा क्यो दिखाई देगी? उसमे तो मनुष्य की ही महिमा दिखाई देगी कि उसने किस अक्लमन्दी से उसे बनाया है । हाँ,परमात्मा की बनाई हुई चीजो में परमात्मा की महानता अवश्य दिखाई देगी । तुम्हें परमात्मा की महानता देखनी है, तो सारी सृष्टि का विचारपूर्वक अध्ययन करो, फिर देखो ईश्वर की बनाई हुई छोटी से छोटी चीज में जितनी महानता प्रकट होती है इन मनुष्यकृत जड़ मूर्तियों में परमात्मा की महानता का कौन सा चिन्ह है, जो प्रकट होगा?
कमल - मित्र, फल सदैव भावना का होता है, मूर्ति को ईश्वर न मानते हुए भी हम उसमें ईश्वर की भावना करके फल प्राप्त कर सकते है । दूसरे, कोई आदमी किसी स्थान पर एक दम ऊँचा नहीं चढ़ सकता, उसके लिए सीढी (जीना) चाहिए । मै मूर्ति-पूजन को ईश्वर कि प्राप्ति की पहली सीढी मानता हूँ । अतएव यदि कोई मनुष्य भगवान् की कल्पित मूर्तियाँ बनाकर पूजा करता है तो इसमें कोई दोष नहीं ।
विमल - तुम्हे याद रखना चाहिए, भावना किसी चीज की वास्तविकता यानी असलियत को नहीं बदल सकती । कोई मनुष्य अज्ञानवश चूने के पानी में दूध की भावना करले तो क्या उससे मक्खन निकाल सकता है? जल में अग्नि की भावना करने से क्या सर्दी दूर कर सकता है? पत्थर में रोटी की भावना करने से क्या पेट भर सकता है? यदि भावना करने से ही प्रत्येक चीज की प्राप्ति हो जाती तो संसार में न तो लोग दुखी देखे जाते और न परिश्रम करते हुए नजर आते । भावना तभी भावना है, जब वह सत्य पर आश्रित हो नहीं तो वह अभावना है । कोई आदमी जुलाब की गोलियों में चूर्ण की भावना करके उन्हें खा जाये तो क्या उन्हें दस्त नहीं आयेंगे? जिस चीज का जो गुण हैं वह उससे कैंसे दूर हो सकता है, इसलिए यह कहना कि भावना करके फल प्राप्त किया जा सकता है, सरासर अज्ञानता है । देखो! सोमनाथ के मन्दिर के पुजारियों की जड मूर्ति में भावना थी कि यह साक्षात् महादेव जी है । जब महमूद गजनवी ने चढाई की, तो पण्डे और पुजारी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। कहने लगे- सब मिलकर सोमनाथजी का जप करो, वे स्वयं ही म्लेक्षों का संहार कर देन्गे हमें लड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है । इस भावना और विश्वास का जो परिणाम निकला, इतिहास के पढ़ने वाले उसे अच्छी तरह जानते है । सोमनाथ ही क्यों इस भावना से हजारों मन्दिर और मूर्तियों टूट गई । अरबो रुपयों की सम्पत्ति लुटेरे लूटकर विदेशो को ले गये। फिर भी लोगो की अन्धी भावना दूर नहीं हुई। कैसे आश्चर्य की बात है कि बेजान मूर्तियों जो कुछ भी नहीं कर सकती उनमें तो लोगों ने कर सकने की भावना रक्खी और जो जानदार सब कूछ कर सकते थे उनमें न करने की भावना रक्खी। हमारे देश और जाति के पतन का यही तो मूल कारण हुआ । अब तुम समझ गये होंगे कि अज्ञानतापूर्वक भावना कितनी दुखदायक होती है । तुम्हारा जो यह कहना है कि मूर्ति-पूजा ईश्वर-प्राप्ति की प्रथम सीढी है, यह बात भी बिल्कुल गलत है। हाँ, चेतन मूर्तियों की पूजा तो ईश्वर प्राप्ति की प्रथम सीढी किन्ही अंशो में मानी जा सकती है, जड़ मूर्तियों की पूजा कदापि नहीं। जड़मूर्ति हिमालय पहाड़ पर चढ़ने की चाहे भले ही पहली सीढी मान ली जाए लेकिन ईश्वर प्राप्ति की पहली सीढी कैसे हो सकती जबकि वह ज्ञान-शून्य है? कोई मनुष्य अग्रेजी पढ़ना चाहे तो उसकी सीढी - ए,बी,सी,डी आदि वर्ण होंगे । संस्कृत या हिन्दी पढ़ना चाहे, तो अ, आ, इ, ई आदि वर्ण पहली सीढी होंगे । यदि कोई मनुष्य ए, बी, सी, डी को प्रथम सीढियाँ मानकर संस्कृत पढ़ना चाहे तो कैंसे पढ़ सकता है? अलिफ, बे, पे, ते को पहली सीढी बनाकर अंग्रेजी या संस्कृत पढ़ना चाहे तो कैंसे पढ़ सकता है? जो जिसकी सीढी है उससे ही काम चल सकता है । ईश्वर प्राप्ति की सीढियों चेतन प्राणियों की निष्काम सेवा, सत्संग, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि हैं । इन पर ही लगातार चढ़ने अर्थात् इनका विधिपूर्वक पालन करने से ईश्वर-प्राप्ति हो सकती है । तुमने जो कहा- भगवान् की कल्पित मूर्तियों बनाकर पूजने में क्या दोष है? दोष एक नहीं है अनेको दोष हैं (१) पहिला दोष तो यह है कि नकली चीज में असली जैसे गुण मानकर मनुष्य अपनेआपको ही धोखा देता है| पशु, पक्षी, कीट, पतंग भी अच्छी तरह जानते हैं कि कोई भी नकली चीज असली का काम दे नहीं सकती । बिल्ली के सामने मिट्टी या रबर का चूहा बना के डाल दो वह कभी उसके ऊपर नहीं झपटेगी । भ्रमर के सामने कागज के फूल बना के डालो, वह उन पर कभी नहीं आकर बैठेगा । इस प्रकार अन्य प्राणी नकली चीज से कभी प्रेम न करेंगे । परन्तु मनुष्य जो संसार के प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ होने का दावा करता है, नकली चीजों से यथेष्ठ फल पाने को आशा करता है । भला इससे बढ़कर आश्चर्य और क्या होगा (२) दूसरा दोष यह है कि ईश्वर की कल्पित मूर्ति बनाने वाले अपनी जैसी ही आवश्यकता ईश्वर में भी समझते हैं जैसे मनुष्य भोजन की आवश्यकता अपने लिए समझता है । वैसे ही ईश्वर में समझकर भोग लगाता है, जैसे आप कपडे पहनता है, बैसे ही ईश्वर को पहनाता है । जैसे आप नहाता है वैसे ही ईश्वर को स्नान कराता है जैसे आप सोता जागता है वैसे ही ईश्वर को भी सुलाता है जगाता है, और जैसे आप आभूषण पहनता है, वैसे ही ईश्वर को भी पहिनाता है । जब मनुष्य अपनी जैसी आवश्यकतायें ईश्वर में भी मानता है तो उससे कल्याण की क्या आशा की जा सकती है? जो स्वयं ही जरुरत मन्द है वह दूसरे की जरुरत कैंसे पूर्ण कर सकेगा, क्या अन्धा अँधा को रास्ता दिखा सकता है? हरगिज नहीं! (३) तीसरा दोष यह है- ईश्वर एक है और मूर्तियों अनेक हैं क्योंकि प्रत्येक सम्प्रदाय ने अपने-२ विश्वास के अनुसार मूर्तियों बनाई हैं। फलत: आपस में साम्प्रदायिक राग-द्वेष, लडाई-झगड़ा रहता है जिससे जातीय (राष्ट्रीय) संगठन को बहुत बडा धक्का लगता है । ऐसे सैकडों दोष बताये जा सकते है।
कमल - तो तुम्हारा मतलब यह है कि मूर्ति को न तो बनाना चाहिए और न पूजा करनी चाहिए । मैं तो समझता हूँ शान्त वीतराग और महान् पुरुषों के चित्र और मूर्ति देखने से मन को शान्ति मिलती है और प्रभाव भी पडता है।
विमल - मेरा मतलब यह हरगिज नहीं कि मूर्तियों और चित्र न बनाना चाहिए । मैं तो कहता हूँ बनाने चाहिए। संसार के महान् पुरुषों की मूर्ति या चित्र बनाना उनकी यादगार को कायम रखना है,परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि चेतन मनुष्यों की तरह उनकी पूजा करनी चाहिए या उनको परमात्मा या परमात्मा का प्रतिनिधि समझकर धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की याचना उनसे करनी चाहिए बेजान चीज बेजान ही है, उनमें यह योग्यता कहाँ है कि वह जीवित मनुष्य या परमात्मा के स्थान में काम आ सकें । जो पिता जीवित अवस्था में पुत्र से प्रेम कर सकता हैं मरने पर भी क्या वैसा ही प्रेम कर सकेगा, जिस शरीर से पिता ने पुत्र को गोद में लेकर खिलाया प्राण निकल जाने पर वहीं शरीर क्या पुत्र के किसी काम में आता है? उस मृतक पिता के शरीर में और पत्थर की बनी हुई मूर्ति ने क्या फर्क है? यही कि पत्थर या धातु की मूर्ति सड़ती नहीं, मृतक का शरीर सड़ जाता है । अन्यथा और बाते एक जैसी ही हैं, उनकी पूजा का अर्थ ही यह है कि उनका ठीक इस्तेमाल किया जाए । यदि उनका इस्तेमाल न किया जायेगा तो वे ही पदार्थ मनुष्य को हानि पहुँचायेंगे । यदि कहो कैसे? तो सुनो! एक मनुष्य गंगा जी का भक्त है, रात दिन पूजा करता है । फूल बताशे चढाता है और गंगलहरी का पाठ करता है । परन्तु वह तैरना नहीं जानता । एक रोज जरा गहरे पानी में चला जाता है अब बताओ, उसे गंगा डुबोयेगी या नहीँ? चाहे वह उसका जितना ही बड़ा भक्त क्यो न हो, तैरना न जानने के कारण गंगा फ़ौरन डुबो देगी । एक दूसरा मनुष्य है जो गंगा को माता न मानकर एक नदी मानता है । हत्या करके आ रहा है । खून में लथपथ है । तुरन्त गंगा में कूद पड़ता है, लेकिन तैरना जानता है । बस फिर क्या? गंगा की छाती को चीरकर फौरन निकल जाता है । ऐसा क्यों हुआ? इसलिए कि वह जल का ठीक इस्तेमाल करना जानता था जब कि पहला जल की गलत पूजा करता था, इसलिए गंगा ने पहले को डुबो दिया दूसरे को बचा दिया । एक तो गंगा की पूजा करने वाले वे लोग हैं जो सिर्फ स्नान में ही मुक्ति मानते हैं, प्रतिवर्ष लाखों करोडों रुपये रेलवे कम्पनियों को दे देते हैं । धक्के खा-खाकर दु:खी और परेशान होते हैं । उन्होंने गंगा की पूजा-स्नान करना, सिर झुकाना और फल-फूल चढाना ही समझा है । दूसरे वे लोग हैं, जिन्होंने गंगा से नहरें निकाली हैं फलत: करोड़ो रुपये सिचाई से प्राप्त किये। गंगा से बिजली निकाली और गंगा से चक्कियाँ पिसवायीं । वे लोग गंगा में स्नान करने कभी नहीं गए, बल्कि नलों द्वारा उन्होंने अपने घर में ही गंगा को बुला लिया । और सब तरह से फायदा उठाया । फ़ायदा क्यो न उठाते, जब उन्होंने जड़ पदार्थ की पूजा का अर्थ और उसका उचित प्रयोग करना समझा है? गंगा ही क्या, प्रत्येक जड़ पदार्थ के विषय में ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं । रही मूर्ति या चित्र को देखकर प्रभाव पड़ने की बात, इसके सम्बन्ध में भी जरा सोचो । अच्छा या बुरा प्रभाव मूर्ति या चित्र देखने से नहीं पड़ता किन्तु अपने आन्तरिक संस्कारों के कारण से पड़ता है । जैसे एक हिन्दू ने राम या कृष्ण की मूर्ति को देखा । वह उसक आगे श्रद्धा से सिर झुका देता है । वह सिर क्यों झुकाता है? इसलिए कि वह राम और कृष्ण का इतिहास जानता है । उसके हृदय पर संस्कार पड़ा हुआ है कि राम और कृष्ण ईश्वर के अवतार थे उन्होंने रावण और कंस को मारा है । यह संस्कार चाहे पुस्तकों के पढ़ने से पड़ा हो, चाहे एक दूसरे से सुनकर पड़ा हो, पड़ा अवश्य है । इसलिए मूर्ति को देखकर यह प्रभावित होता है। लेकिन उसी हिन्दू के सामने अगर जापान के देवता "कनफ्यूशियस" की मूर्ति आ जाये तो उसे देखकर वह कभी प्रभावित न होगा, न उसने उसके प्रति श्रद्धा उत्पन्न होगी । क्योकि 'कनफ्यूशियस' के बारे ने वह कुछ नहीं जानता, उसके हृदय पर उसका कोई संस्कार नहीं है, इसलिए वह उसे सिर नहीं झुकाता । एक मुसलमान किसी भी हिन्दू देवी देवता की मूर्ति को देखकर श्रद्धा से सिर नहीं झुकाता इसका क्या कारण है? यही कि उस मुसलमान के हृदय पर उसका कोई संस्कार नहीं है । उसे एक निर्बल तथा कुरुप मुसलमान का चित्र तो अच्छा लगता, परन्तु हिन्दू देवी देवता की मूर्ति या चित्र अच्छा नहीं लगता, न उसमें उसको श्रद्धा होती है । मुसलमान का चित्र अच्छा क्यों लगता है? इसलिए कि उसके मन में 'मोमिन' या इस्लाम का सहायक होने के संस्कार दृढ़ हो रहे है । अब तुम समझ गये होंगे कि जो कोई भी प्रभाव पड़ता है, वह अपने संस्कारों के कारण पड़ता है, मूर्ति को देखने से नहीं । यदि मूर्ति को देखने से पड़ता तो प्रत्येक मनुष्य के मन पर प्रत्येक मूर्ति को देखने से पड़ता और उसको शान्ति मिलती । परन्तु ऐसा नहीं होता ।
कमल - जैसे स्कूल में नक्शे दिखाये जाते हैं, छोटे से नक्शे से सारे संसार का ज्ञान प्राप्त करा देते हैं । इसी प्रकार छोटी मूर्ति से विशाल परमात्मा का ज्ञान भी प्राप्त कराया जा सकता है?
विमल - प्यारे मित्र! नक्शा साकार जगत् का बनाया जाता है और उससे समुद्र, नदी, झील, पहाड़, नगर, कस्बा, सड़क, रेलें आदि का ज्ञान कराया जा सकता है । परमात्मा सर्वव्यापक और निराकार है । अत: उसका नक्शा (मूर्ति) सम्भव नहीं है, न इससे परमात्मा का ज्ञान हो सकता है ।
कमल - अक्षर और शब्द निराकार हैं परन्तु उनकी मूर्ति बनाकर बालको को बोध कराया जाता है कि नहीं? यदि अक्षरों और शब्दों का आकार न बनाया जाये, तो लड़के कैंसे विद्या प्राप्त कर सकें?
विमल - अक्षर और शब्द आँख से नहीं देखे जाते, परन्तु कानों से सुने तो जाते है। समझने के लिए जो कान का विषय है, उसे नेत्रों का लोग बना लेते है । लेकिन जो किसी इन्द्रिय का विषय न हो, उसे समझाने के लिए किस इन्द्रिय का विषय बनाया जाये? किसी का भी नहीं । उसे तो केवल अनुभव द्वारा ही जाना जा सकता है और यह भी कोई आवश्यक नहीं कि निराकार अक्षरों और शब्दों के कल्पित चिन्ह ही बनाये जाये तभी विद्या प्राप्त हो सकती हैं । यदि ऐसा होता तो अंधे मनुष्य तो पढे हुए मिलते ही नहीं? क्योंकि उन्होंने न तो अ, आ, इ, ई का रुप देखा है, और न ए, बी, सी, डी का । लेकिन अंधे मनुष्य अंग्रेजी, संस्कृत आदि भाषाओ के बड़े-२ विद्वान मिलते हैं। दूसरे लिखे हुए कल्पित चिन्ह वर्ण कहलाते हैं, अक्षर नहीं । जो बोला जाता है वह अक्षर है और निराकार है और जो लिखा जाता है वह वर्ण है और साकार है।
कमल - अच्छा समय निराकार है, परन्तु उसकी मूर्ति घड़ी के रुप में बनाकर काम निकालते हैं या नहीं?
विमल - घड़ी समय की मूर्ति नहीं है, सूर्य की मूर्ति है । जैसे सूर्य से समय का ज्ञान होता है वैसे ही घड़ी से समय का ज्ञान होता है। घडियों का सारा क्रम सूर्य पर निर्भर है ।
कमल - निराकार का ध्यान करें तो कैंसे करें? यदि मूर्ति सामने हो तो उसका ध्यान भी होता रहे । निराकार का ध्यान करने बैठे, आँखे मींचली अब चीज कोई सामने नही हो तो मन लगेगा भी कैंसे?
विमल - जगत् दो तरह का है - एक आध्यात्मिक दूसरा भौतिक । आध्यात्मिक का अर्थ है आत्मा सम्बन्धी और भौतिक का अर्थ है पृथ्वी, जल, अग्नि आदि पञ्च भूतों सम्बन्धी | याद रखो परमात्मा सम्बन्धी विचार आध्यात्मिक जगत से सम्बन्धित है। जब तुम ध्यान करने बैठे और मूर्ति का आकार ही मन और मस्तिष्क में घुमाते रहे तो फिर आध्यात्मिक अर्थात् परमात्मा सम्बन्धी चिन्तन कहाँ हुआ वह तो भौतिक अर्थात, भूत सम्बन्धी हुआ, क्योंकि मूर्ति पंच भूतों से बनीं है । आध्यात्मिक ध्यान तो तभी बनेगा जब संसार की समस्त मूर्तिमान वस्तुओं का विचार छोड़कर आत्मा में ही परमात्मा की व्यापकता का अनुभव करोगे । परमात्मा और आत्मा में देश काल की दूरी नहीं केवल ज्ञान की दूरी है । अज्ञान का परदा हटते ही परमात्मा का अनुभव होने लगता है । रही मन लगने की बात सो मन तो लगाने से लगता है । जिस काम का भी अभ्यास करोगे उसमें मन लगेगा। अभ्यास से संसार के सारे काम सिद्ध हो जाते हैं । बहुत सी स्त्रियाँ पानी के दो तीन घडे सिर पर रखकर और गोद में बच्चे को लेकर आपस में बातचीत करती हुई ऊबड़-खाबड़ भूमि पर चली जाती हैं क्या मजाल जो एक बूँद भी पानी गिर जाये । एक नट लम्बे बाँस पर कई-२ घडे और दोनों हाथों में दो-दो लड़के लिए हुए चढ़ जाता है । सरकसों में तार पर साइकिलें लड़कियों चलाती है । कुत्ते, बिल्ली तक भी तोप और बन्दूक चलाते हुए देखे जाते हैं । यह सब अभ्यास का ही तो परिणाम है । दुबले-पतले आदमी चार बजे उठकर ठण्ड में गंगा, जमुना नहाने चले जाते हैं । और बडे-२ तगडे और तन्दुरुस्त चार बजे रजाई से मुँह खोलते हुए भी घबराते हैं। क्यों? जिन्होंने नहाने का अभ्यास डाला हुआ है, उनके लिए जाड़ा गर्मी सब एक समान है । इसी प्रकार जिन्होंने भगवान के चिन्तन का अभ्यास जाना हुआ है. यम-नियम आदि की साधना द्वारा वे घण्टों नदी, पर्वतों और एकान्त स्थान में बैठे-२ चिन्तन करते हैं । और जो लोग समाधि लगाते हैं है कईं-कई दिन तक ध्यान करते रहते हैं । क्या वे लोग किसी मूर्ति का ध्यान करते हैं? हरगिज नहीं । गहराई से सोचो, तो मूर्ति में मन लगता ही नहीं क्योंकि कभी नाक का ध्यान होगा, कभी आँख का, कभी हाथ पैरों का, मन अंगों में ही चक्कर काटता रहेगा । मन के आगे जब कोई मूर्ति नहीं होगी तभी उसकी वृत्तियाँ आत्मा की ओर लगेगी।
कमल - हलवाई की दूकान से मै चार आने के पेड़े लाता हूँ, जिन्हें खाकर स्वाद आता है । पेडा साकार है और स्वाद निराकार है| हलवाई से कहा जाये, चार आने का स्वाद दे दो जो निराकार है तो कैसे देगा? इससे पता चलता है कि साकार मूर्ति से ही निराकार परमात्मा का आनन्द आ सकता है ।
विमल - मित्र, देखो! जो जिसका गुण है, खाने पर वह तो प्रतीत होगा। पेड़े खाने से पेड़े का स्वाद आयेगा, लड्डू खाने पर पेडों लड्डू का स्वाद आयेगा । पेड़े और स्वाद से गुण-गुणी का सम्बन्ध है न कि व्याप्य व्यापक का। पेड़े द्रव्य है स्वाद उसका गुण है । परन्तु मूर्ति और परमात्मा दोनों द्रव्य है । पेड़े खाने से तो उसका गुण स्वाद प्रतीत हो जाएगा, परन्तु मूर्ति से परमात्मा का आनन्द कैसे प्रतीत होगा, जबकि मूर्ति का परमात्मा गुण नहीं है । दूसरे पेड़ा खाने पर ही पेडे का स्वाद आता है । कोई आदमी मिट्टी का नकली पेड़ा बनाकर खाने लगे तो क्या स्वाद आ जाएगा ? हरगिज नहीं! इसी प्रकार परमात्मा का अनुभव करने पर ही परमात्मा का आनन्द आ सकता है, परमात्मा के स्थान पर नकली मिट्टी-पत्थर के परमात्मा की मूर्ति बनाने पर परमात्मा का आनंद कैंसे आ जायगा?
कमल - जिस तरह राजा की मूर्ति के कारण नोटों और रुपयों का व्यवहार सुखदायक है इसी प्रकार मूर्ति की पूजा सुखदायक है ।
विमल - प्रथम तो राजा शरीरधारी है उसकी मूर्ति नोट और रुपयों पर बन सकती है, परमात्मा निराकार है उसकी मूर्ति नहीं बन सकती | दूसरे नोट और रुपये राजा की आज्ञा से राजा के ही कारखाने में बने हुए सुखदायक हैं, यदि कोई मनुष्य राजा की आज्ञा के विरुद्ध जाली सिक्का अपने घर में बनाने लगे, तो जेल की हवा खाये बगैर न रहे । इसी प्रकार परमात्मा की बनाई हुई मूर्तियों का यथायोग्य व्यवहार ही सुखदायक है, परमात्मा की आज्ञा के विरुद्ध परमात्मा के स्थान में मिट्टी पत्थर की जाली मूर्तियाँ बनाना और उनकी पूजा करना अनेक योनि रुप जेलखाने में जाने का प्रयत्न करना है।
कमल - महाभारत में आता है- एकलव्य ने द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर शस्त्र विद्या सीखी थी।
विमल - द्रोणाचार्य कीं मूर्ति थी तब एकलव्य ने उनकी प्रतिमूर्ति बनाई उसने परमेश्वर के स्थान में उसकी पूजा नहीं की। दूसरे शस्त्र-विद्या मूर्ति ने नहीं सिखलाई, यदि मूर्ति ही सिखलाती तो उसे अभ्यास करने की क्या आवश्यकता थी ? उसने सारी शस्त्र-विद्या अभ्यास से सीखी । द्रोणाचार्य को इस बात का पता भी न चला । जब पता चला तो मूर्ति बनाने का फल अपना अँगूठा काट देना मिला । मूर्ति में यह योग्यता कहाँ है, कि वह किसी काम को सिखा सकें? यदि सिखा सकें तो व्यास जी की मूर्ति रखकर प्रत्येक को उससे वेद पढ़ लेना चाहिए । कुबेर की मूर्ति से प्रत्येक को धन प्राप्त कर लेना चाहिए । जड़ मूर्ति से सिवाय जड़ता के और कोई गुण मिल भी क्या सकता है? एक बैरा अंग्रेजों को नौकरी करके अँग्रेजी बोलना सीख जाता है । हलवाई की नौकरी करने वाला मिठाई बनाना सीख जाता है । अग्नि के पास बैठने से गर्मी महसूस होती है, और पानी के पास बैठने से शीतलता । जिसकी संगति की जायेगी उसका गुण अपने अन्दर आयेगा जड़ मूर्तियों की संगति से जड़ता आई, लोग पिटे, मन्दिर टुटे । देश में भयंकर गुलामी और गरीबी आई। जड़ की संगति से आत्मविश्वास और कर्मण्यता नष्ट हुई ।
कमल - अच्छा, इस पर तो काफी विचार हो चुका है, अब यह बताओं, ईश्वर दयालु और न्यायकारी है या नहीं? यदि है, तो दया न्याय दोनों साथ-साथ कैंसे रह सकते हैं? क्योंकि जब दया करेगा तो न्याय नष्ट हो जायेगा और न्याय करेगा तो दया नष्ट हो जायेगी ।
विमल - इस पर विचार कल होगा।
| ओ३म् |
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