Friday, October 11, 2013

Format Currency in Indian Format with Rupee Symbol in Excel

Format Currency in Indian Format with Rupee Symbol in Excel:
 
1. If you are unable to view the character within brackets: [ ₹ ] then you need to FIRST install a windows update to view Unicode 'New Rupee Symbol' from below link otherwise skip to step 3:
 
2. Download following windows update to view Unicode New Rupee Symbol & install it:
 
 
3. Open Excel
 
4. Select the range in Excel where you want the numbers to be appeared in Indian Currency format, then
 
[EXCEL 2003]
 
Goto Format -> Cells -> Number -> Category -> Custom & Paste the below string in "Type:" box.
 
[>=10000000]"₹ "##\,##\,##\,##0;[>=100000]"₹ " ##\,##\,##0;"₹ "##,##0
 
and press OK and see the result.
 
[EXCEL 2007]
 
Home Tab -> Formats -> Format Cells -> Number -> Category -> Custom & Paste the below string in "Type:" box.
 
[>=10000000]"₹ "##\,##\,##\,##0;[>=100000]"₹ " ##\,##\,##0;"₹ "##,##0
 
and press OK and see the result.
 

5. You will see like this: ₹ 21,13,29,000

Wednesday, September 25, 2013

Isha Upanishad



ईशोपनिषद्

दैनिक स्वाध्याय के लिये यजुर्वेद का चालीसवां अध्याय, जिसे उपनिषदों का आदिस्त्रोत और ईशोपनिषद् भी कहते है, यहाँ प्रस्तुत है - इसके स्वाध्याय से वेद और उपनिषद् दोनों का फल मिलता है|

ईशावास्यमिद्ँ सर्वे यत्किञ्च जगत्यां जगत् |
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम् ||||

हे मनुष्यों ! यह सब जो कुछ संसार में चराचर वस्तु है | ईश्वर से ही व्याप्त है, अर्थात् ईश्वर सर्वत्र व्यापक है, उसी ईश्वर के दिए हुए पदार्थो से भोग करो, किसी के भी धन का लालच मत करो | अर्थात् किसी के भी धन को अन्याय पूर्वक लेने की इच्छा मत करो |

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्ँ समा: |
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ||||

इस संसार में मनुष्य वेदोक्त शुभ कर्मो को करता हुआ ही सौ वर्ष तक जीने के इच्छा करे, अर्थात् नित्य नैमित्तिक शुभ कर्मो का कभी भी त्याग न करे | इस प्रकार से निष्काम कर्म करते हुए तुझ मनुष्य में (अधर्म युक्त) कर्म लिप्त नहीं होते, (मोक्ष प्राप्ति का) इससे भिन्न और कोई मार्ग नहीं है |

असुर्य्या नाम ते लोकाऽअन्धेन तमसावृता: |
ताँस्ते प्रेत्यापि गच्छन्ति ये के चात्महनो जना: ||||

जो लोग अपनी आत्मा के विपरीत आचरण करने वाले है वे आत्मघाती है, वे इस लोक में और मरने के अनन्तर भी निश्चय ही उन लोक अर्थात् योनियों को प्राप्त होते है जो अन्धकार से आच्छादित और प्रकाश रहित है - अर्थात् जो लोग आत्मा और ईश्वर के ज्ञान के बिना ही इस संसार से चले जाते है वे आत्मघाती है | उन लोगो ने अपनी आत्मा का हनन किया है यदि वे चाहते तो ज्ञान द्वारा अपनी आत्मा को पवित्र करके मोक्ष का अधिकारी बना सकते थे, परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया, इसीलिए वे ऐसी ऐसी योनियों में जन्म पाते है जहां अज्ञान ही अज्ञान है, ज्ञान का नाम भी नहीं है | इसलिए मनुष्य को आत्मसाक्षात्कार का सदैव प्रयत्न करना चाहिए - और सांसारिक विषयो से मुख मोड़ कर परमात्म चिंतन में जीवन लगाना चाहिए |

अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवाऽआप्नुवन् पूर्वमर्षत् |
तध्दावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ||||

वह ब्रह्म अचल, एकाग्र मन से अधिक वेग वाला है क्योंकि सब जगह पहिले से पंहुचा हुआ है उस ब्रह्म को इन्द्रियां नहीं प्राप्त होती अर्थात् वह इन्द्रियों से (उन इन्द्रियों का विषय न होने के कारण ) प्राप्त नहीं होता | वह अचल होने पर भी दौड़ते हुए अन्य सब पदार्थो को उल्लंघन कर जाता है (क्योंकि दौड़ने वाले हर पदार्थ से पूर्व ही वह हर स्थान पर विध्यमान रहता है) उसके भीतर वायु मेघादि रूप में जलो को धारण करता है |

तदेजति तन्नैजति तद् दूरे तद्वन्तिके |
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाहय्त: ||||

वह ब्रह्म गति देता है परन्तु स्वयं गति में नहीं आता, वह दूर है, वह समीप भी है, वह इस सब के अन्दर और बाहर भी है |

यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्नेवानुपश्यति |
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ||||

जो कोई सम्पूर्ण चराचर जगत को परमेश्वर में ही देखता है और सम्पूर्ण चराचर जगत में परमेश्वर को देखता है इससे वह निन्दित आचरण नहीं करता | अर्थात् जो मनुष्य परमात्मा को सर्वत्र व्यापक जानता है वह उसके भय से कभी भी निन्दित आचरण नहीं करता |

यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत: |
तत्र को मोह: क: शोकऽएकत्वमनुपश्यत: ||||

विशेष ज्ञान सम्पन्न योगी की दृष्टि में जब सम्पूर्ण चराचर जगत परमात्मा ही हो जाता है उस अवस्था में परमात्मा के एकत्व को देखने वाले उस योगी को कहां मोह और कहां शोक |

स पर्य्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविर्ँ शुद्धमपापविध्दम् |
कविर्मनीषी परिभू: स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्य: ||||

वह ईश्वर सर्वव्यापक है, जगत उत्पादक, शरीर रहित, शारीरिक विकार रहित, नाड़ी और नस के बंधन से रहित, पवित्र, पाप से रहित, सूक्ष्मदर्शी, ज्ञानी, सर्वोपरि वर्तमान, स्वयंभू: अर्थात् अजन्मा है वही अनादि काल से प्रज्ञा जीव के लिए ठीक ठीक कर्म का विधान करता है |

अन्धन्तम: प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते |
ततो भूय इव तेऽ तमो य उ विद्याया्ँ रता: ||||

जो कर्म का ज्ञान की उपेक्षा करके सेवन करते है| गहरे अन्धकार में प्रवेश करते है और जो कर्म की उपेक्षा करके केवल ज्ञान में रमते है वे उससे भी अधिक अन्धकार को प्राप्त होते है | इसलिए उपासक को ज्ञानपूर्वक ही कर्म करने चाहिए|

अन्यदेवाहुर्विद्ययाऽन्यदाहुर विद्यया |
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ||१०||

वेद - ज्ञान से और प्रकार के फल प्राप्ति का वर्णन करते है और कर्म से और प्रकार के फल प्राप्ति का वर्णन करते है | ऐसा हम उन ध्यानशील पुरुषो का वचन सुनते आ रहे है जो हमारे लिए उन वचनों का उपदेश करते है |

विद्याञ्चाविद्याञ्च यस्तद्वेदोभय्ँ सह |
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ||११||

जो ज्ञान और कर्म इन दोनों को साथ ही साथ जानता है वह कर्म से मृत्यु को तैर कर ज्ञान से अमरता को प्राप्त होता है |

अन्धन्तम: प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते |
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्या्ँ रता: ||१२||

परमेश्वर को छोड़ कर जो लोग (असम्भूति) कारण प्रकृति की उपासना करते है वे गहरे अन्धकार में प्रवेश करते है, उनसे अधिक वे अन्धकार को प्राप्त होते है जो (सम्भूति) कार्य प्रकृति अर्थात् पृथिवी आदि के विकार पाषाण आदि कार्य जगत की ईश्वर भावना से उपासना करते है |

अन्यदेवाहु: सम्भवादन्यदाहुरसम्भ्वात् |
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ||१३||

कार्य प्रकृति = सूक्ष्म + स्थूल शरीर से और ही फल कहते है और कारण प्रकृति अर्थात् कारण शरीर से और ही फल कहते है| ऐसे हम धीर पुरुषो के वचन सुनते आते है जो विद्वान हमारे लिए उन वचनों का उपदेश करते रहे है |

सम्भूतिञ्च विनाशञ्च यस्तद्वेदोभय्ँ सह |
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्याऽमृतमश्नुते ||१४||

जो कोई कार्य रूप प्रकृति = सूक्ष्म + स्थूल शरीर और कारण रूप प्रकृति = कारण शरीर उन दोनों को साथ साथ जानता है वह कारण शरीर से मृत्यु को तैर कर कार्य शरीर से अमरता को प्राप्त होता है - इसका आशय यह है कि प्राकृतिक तत्व ज्ञान के बिना आत्मा और ईश्वर का विवेक नहीं हो सकता, इसलिए जब मनुष्य प्रकृति की वास्तविकता को जान लेता है तब जन्म मरण के बंधन से छूट कर इस शरीर से ही जीवन मुक्त दशा को प्राप्त करके ब्रह्मानंद को प्राप्त कर लेता है |

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् |
तत्वम्पूषन्नपावृणु सत्य धर्माय दृष्टये ||१५||

सत्य का मुख स्वर्ण के पात्र से ढका हुआ है | हे सबके पोषक परमात्मन ! तू उस सत्य स्वरुप के दर्शन के लिए उस आवरण को हटा दे |

पूषन्नेकर्षेयम सूर्य प्राजापत्यव्यूहरश्मीन् समूह |
तेजो यत्ते रूपंकल्याणतमन्तत्ते पश्यामि योऽसावसौ पुरुष: सोऽहमस्मि ||१६||

हे सर्वपोषक, अद्वितीय, न्यायकारी प्रकाशस्वरूप प्रजापते | आप अपनी किरणों को फैला दे, और अपने तेज को इकट्ठा करके मेरे दर्शन योग्य बना दे, ताकि आपकी कृपा से आप के अति कल्याणकारी रूप का साक्षात्कार कर सकू, जो वह पुरुष है वह वह मै हूँ | अर्थात् आप मुझे इस योग्य बना दे कि मै आपके प्रेम में इतना मग्न हो जाऊं जो आप से भिन्न अपने को न देख सकूं |

वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्त्ँ शरीरम् |
ओ३म् क्रतो स्मर, क्लिबे स्मर, कृत्ँ स्मर ||१७||

शरीर में आने जाने वाला जीव अमर है | केवल यह शरीर भस्मपर्यन्त है इसलिए अंत समय में हे जीव, ओ३म् का स्मरण कर, बल प्राप्ति के लिए स्मरण कर और अपने किये हुए कर्मो का स्मरण कर |

अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान ।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम ||१८||

हे प्रकाशस्वरूप, तेजस्वी ईश्वर ! आप हमारे सम्पूर्ण कर्मो को जानने वाले है, इसलिए ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए हमको अच्छे मार्ग से चलाइये | हमको उलटे मार्ग पर चलनेरूप पाप से दूर कर दीजिये, हम आपको बार बार नमस्कार करते है |

ओ३म् शान्ति: शान्ति: शान्ति: |