Monday, June 23, 2014

ईश्वर है या नहीं ?

| ओ३म् |

वैदिक सिद्धांतो पर आधारित

"दो मित्रो की बातें" - पंडित सिद्ध गोपाल कविरत्न



ईश्वर है या नहीं ?




कमल - मित्र, तुम कहा करते हो कि नित्य ईश्वर प्रार्थना किया करो, मैं तुमसे आज यह पूछता हूँ कि बताओ ईश्वर है कहाँ जिसकी प्रार्थना किया करुँ?



विमल - ईश्वर सब जगह है, कोई स्थान उससे खाली नहीं है ।



कमल - यह खूब ही कही, जब ईश्वर सब जगह है, तो और चीजें किस जगह हैं? जगह तो सभी ईश्वर ने घेर ली, कोई स्थान उससे खाली न रहा, तो और चीजें बिना स्थान के ही रहती हैं?



विमल - नहीं मित्र, यह बात नहीं, कोई स्थान ईश्वर से खाली नहीं हैं, इससे मेरा मतलब यह है कि उसकी सत्ता सब स्थानों में है। बोल-चाल की भाषा में इसी तरह कहा जाता है । ईश्वर की सत्ता जगह को नहीँ घेरती। जगह घेरने वाले पदार्थ प्राकृतिक होते है पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा उनके परमाणु ये सबके सब जगह को घेरते हैं, ईश्वर तो इन समस्त पदार्थों में व्यापक है । इसलिए कहा जाता है - ईश्वर सब जगह है ।



कमल - अच्छा, ईश्वर सब जगह है तो दिखाई क्यों नहीं देता ? जब दिखाई नहीं देता तो उसके होने का प्रमाण ही क्या है ?



विमल - तो क्या, जो चीज दिखाई नहीं देती, वह होती ही नहीं ? संसार में बहुत से ऐसे पदार्थ हैं, परन्तु नहीं दिखाई देते । जैसे - सर्दी, गर्मी, सुख-दुःख, समय, दिशा, भूख, प्यास, खुजली, दर्द इत्यादि । किसी चीज के दिखाई न देने के बहुत से कारण हो सकते हैं और होते हैं । संसार में बहुत सी चीजें ऐसी हैं, जो बहुत दूर होने के कारण दिखाई नहीं देती जैसे - यूरोप, अमेरिका तथा बहुत दूर उड़ती हुई पतंग या पक्षी। बहुत सी चीजें ऐसी है, जो अत्यन्त पास होने के कारण नहीं दिखाई देती जैसे आँख और उसमें लगा हुआ सुरमा । बहुत सी चीज ऐसी है, जो अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण नहीं दिखाई देती जैसे परमाणु, इसी भाँति अनेक प्रकार के कीटाणु है जो दूरबीन द्वारा ही देखे जा सकते हैं । बहुत सी चीजें ऐसी है, जो परदे के कारण दिखाई नहीं देती जैसे काई के परदे के कारण पानी । मैल के परदे के कारण शीशा । दीवार के कारण दीवार के पीछे बैठा हुआ मनुष्य । बहुत सी चीजें किसी एक गुण में समान होने से नहीं दिखाई देती, जैसे दूध में पानी, क्योंकि दोनो बहने वाले पदार्थ हैं। बहुत सी चीजें ऐसी होती है, जो आँख में दोष होने के कारण नहीं दिखाई देती जैसे - पीलिया हो जाने पर सफेदी । इसलिए यह कहना कि जो दिखाई नहीं देता वह होता ही नहीं, सरासर भूल है ।



कमल - बिना देखे मुझे तो विश्वास नहीं होता ।



विमल - यह तुम्हारा कोरा हठ है । मैं बता चुका हूँ कि बहुत सी चीजें जो आँख से नहीं दिखाई देती वे होती हैं और उन पर विश्वास करना ही पडता है । अच्छा, बताओं मैं जो बोल रहा हूँ उसे तुम सुन रहे हो या नहीं?



कमल - हाँ सुन रहां हूँ ।


विमल - किससे सुन रहे हो?


कमल - कानों से ।

 
विमल - जो मैं शब्द बोल रहा हूँ वह है भी या नहीं?



कमल - हैं क्यों नहीं?



विमल - फिर उन्हें आँखों से क्यों नहीं देख रहे हो? अच्छा और लो, मेरे हाथों में यह फूल है, बताओं किसका है?



कमल - गुलाब का।



विमल - इसमें सुगन्ध है या नहीं?



कमल - है।



विमल - किससे पता चलाया?



कमल - नाक से ।



विमल - एक बात और बताओं, रात जो तुमने दूध पिया था उसमें बूरा था या नहीं?



कमल - था ।


विमल - उसका अनुभव किससे हुआ?

 
कमल - जुबान से ।


विमल - अब मैं पूछता हूँ, शब्दों का ज्ञान कानों से, सुगन्धि का ज्ञान नाक से और बूरा का ज्ञान जुबान से ही क्यो हुआ? आँखों से शब्दों का, कानो से सुगन्धि का और नाक से मिठास का ज्ञान क्यो नहीं प्राप्त किया? गन्ध और मिठास के होते हुए भी आँखों ने उन्हें देखा क्यो नहीं?



कमल - जिस इन्द्रिय का जो विषय था, उसने उनका ज्ञान प्राप्त किया, ईश्वर तो किसी इन्द्रिय से नहीं जाना जाता उसे कैसे मान ले कि वह है?

 
विमल - तुम्हारा पक्ष तो यह था, कि ईश्वर दिखाई नहीं देता, इसलिए वह नहीं है, जरा देर में ही बात बदल दी । अच्छा चलो, यह बात तो तुमने मान ली कि जो चीजें आँखों से दिखाई नहीं देती वह भी होती हैं । यह और बात है, कि उसका ज्ञान आँख के अतिरिक्त दूसरी इन्द्रियों से हो । अब तुम इस बात पर आये हो कि ईश्वर किसी इन्द्रिय से नहीं जाना जाता उसे कैंसे मान लें कि वह है । अच्छा बताओं, इन्द्रियों से न जानने के कारण तुम ईश्वर को नहीं मानते हो, तो इन इन्द्रियों को ही कैसे जानते हो? यदि कहो इन्द्रियों को इन्द्रियों से जानता हूँ, तो यह आत्माश्रय दोष है, क्योंकि कोई भी दृष्टा स्वयम् ही दृश्य नहीं हो सकता । इन्द्रियाँ इन्द्रियों को जान भी कैसे सकती है, जबकि उनके भिन्न भिन्न विषय हैं । आँख का रुप, कानों का शब्द, नासिका का गन्ध, जिह्वा का रस और त्वचा का स्पर्श विषय है । नाक आँख को नहीं जान सकती,जिह्वा कानो को नहीं जान सकती।



कमल - वाह! जान क्यों नहीं सकता? जब मैं शीशा हाथ में लेता हूँ, तो आंख, मुख, नाक, कान, जिहवा आदि सब इन्द्रियां दिखाई देती हैं । आँख तो वह इन्द्रिय है जो समस्त इन्द्रियों का ज्ञान प्राप्त करा देती है ।



विमल - मित्र, यह तुम्हारी भूल है । आँख से जो भी कुछ देखते हो वह रूप ही देखते हो, अन्य इन्द्रियों तथा उनके विषयो को नहीं । शीशे के द्वारा इन्द्रियां कहाँ दिखाई देती हैं । इन्द्रियों के गोलक अर्थात् स्थान दिखाई देते हैं, जो रुप वाले हैं । इन्द्रियां उन स्थानों मेंशक्ति रुप में विद्यमान है । आँख समस्त इन्द्रियों का ज्ञान तो क्या करायेगी, आँख तो स्वयं अपने को भी नहीं देखती | और यदि तुम्हारी यही धारणा है कि शीशे से आँख दिखाई देती हैं तो, लो, मैं तुमसे एक बात पूछता हूँ बताओं यह मेरे हाथ में क्या है?



कमल - शीशा है ।



विमल - शीशा है, यह किससे देखा।



कमल - आँखों से ।


विमल - अच्छा आँखों से शीशे को देखा हैं तो शीशा देखने से पहले आँखों का ज्ञान था; इसका मतलब यह हुआ कि यदि आँखे न होती तो शीशे को नहीं देख सकती थी । अब बोलो आँखों से शीशे का ज्ञान होता है या शीशे से आँखों का ज्ञान होता है? यदि शीशे से आँखों का ज्ञान होता तो आँख के फूट जाने पर शीशा फूटी आँख का ज्ञान अवश्य करा देता । आँखों के चले जाने पर शीशा आँख का तो ज्ञान क्या, स्वयं अपना भी ज्ञान नहीं करा सकता और ज़रा गहराई से सोचोगे तो पता चलेगा कि आँख भी जो कुछ देखती है साधनो की सहायता से देखती है, स्वतन्त्र रुप से नहीं । यह बात तो ठीक है कि रूप का ज्ञान बिना आँखों के नहीं हो सकता, लेकिन रूप का ज्ञान भी आँखे अपने आप ही नहीं कर लेती ।



कमल - आँखों को किन साधनों की जरुरत है? आँखे तो स्वतन्त्र रूप से देखती हैं। आँखों का तो विषय ही देखना है जरा बताओं, कि आँखे स्वतन्त्र रूप से क्यों नहीं देखती?



विमल - अच्छा, सुनो, मैं इस समय सारी चीजों को देख रहा हूँ । लेकिन अगर इस समय घोर अंधेरा हो जाये, तो मैं ये सारी चीजे देख सकूंगा या नहीं?



कमल - नहीं ।


विमल - तो पता चला कि देखने के लिए न सिर्फ आँखें ही चाहिए, बल्कि प्रकाश भी । प्रकाश के न होने पर आँखों के होते हुए भी मैं अंधा हूँ। अच्छा प्रकाश औरआँखेदोनों ही चीजे मौजूद हों तो भी मैं नहीं देख सकता, अगर देखने की चीज एक निश्चित स्थान पर न हो । देखो! यह किताब है, यदि मैं इसके अक्षर एक फलांग की दूरी से देखना चाहूँ तो नहीं देख सकता । और यदि आँखों पर ही पुस्तक को लाऊँ तो भी इसके अक्षर नहीं देख सकता । अक्षरों को देखने के लिए एक निश्चित स्थान चाहिए, तब उन्हें देखा और पढ़ा जा सकता है और देखो, आँखे, प्रकाश और निश्चित स्थान भी हो, तो भी नहीं देखसकते, यदि मन का सम्बन्ध आँखों से न हो। मन यदि किसी कार्यं में लगा हो, आँख के सामने से चीज निकल जायेगी परन्तु आँख उसे देख न सकेंगी। बहुधा ऐसा होता है कि सामने से कोई चीज निकल गई, किसी ने पूछा - आपने अमुक चीज को देखा? तो उत्तर मिलता है, अजी 'मैंने ख्याल नहीं किया' अब तुम समझ गये होंगे कि देखने के लिए कितने साधन चाहिए।



कमल - तुम्हारे इन तमाम बातों के कहने का मतलब क्या हुआ ?


विमल - अब भी नहीं समझे ! मतलब यह हुआ कि अगर ईश्वर को इन्द्रियों से नहीं जान सकते, तो इन्द्रियों को भी इन्द्रियों से नहीं जान सकते फिर भी इन्द्रियों को मानना पड़ता है, फिर ईश्वर के मानने में ही शंका क्यों है?



कमल - इन्द्रियां कैसे जानी जाती हैं?


विमल - इन्द्रियों को, जीवात्मा अनुभव द्वारा जानता है । जब उनसे शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध का ज्ञान प्राप्त करता है, तो वह जानता है कि यह मेरे पास साधन हैं, जिनसे मैं काम ले रहा हूँ।



कमल - और ईश्वर कैसे जाना जाता हैं?



विमल - ईश्वर भी अनुभव से जाना जाता है ।



कमल - इसका अनुभव किसको होता है?



विमल - आत्मा को ही परमात्मा का अनुभव होता है ।



कमल - यह अनुभव कब होता है?



विमल - जब मन के तीन प्रकार के दोष दूर हो जाते हैं ।



कमल - ये तीन प्रकार के दोष कौन से हैं?

 
विमल - मल, विक्षेप और आवरण ये तीन दोष हैं ।



कमल - इनकी परिभाषा क्या हैं?



विमल - मन में दूसरों को हानि पहुँचाने का विचार तथा पापों के जो आत्मा पर संस्कार है उसका नाम 'मल' है, लगातार विषयों का चिन्तन करने अथवा मन के स्थिर न रहने का नाम 'विक्षेप' है । संसार के नाशवान पदार्थों के अभिमान का मन पर पर्दा पड़े रहने का नाम आवरण है ।



कमल - इन तीन प्रकार के दोषों को किस प्रकार दूर किया जाता है?



विमल - इनके दूर करने के तीन साधन हैं ।



कमल - वह कौन से हैं?


 
विमल - ज्ञान, कर्म, और उपासना ।



कमल - ज्ञान, कर्म और उपासना से क्या मतलब है?



विमल - जो पदार्थ जैसा हो, उसको वैसा ही समझना। जड़ को जड़, चेतन को चेतन, नित्य को नित्य और अनित्य को अनित्य जानना 'ज्ञान' और शरीर, समाज तथा आत्मा की उन्नति के लिए उन पदार्थों की प्राप्ति के लिए यत्न करना 'कर्म' और पदार्थों के पास जाकर उनके गुणों से अपने दोषों को सुधांरने का नाम 'उपासना' है । कल्पना करो, एक मनुष्य शीत का सताया हुआ है । अगर वह शीत दूर करने के लिए जल के समीप जाता हैं तो यह उसका अज्ञान है, ज्ञान नहीं । शीत तो तभी दूर हो सकता है, जब प्रथम उसे अग्नि का ज्ञान हो, फिर शीत शान्त करने के लिए अग्नि की प्राप्ति के लिए कर्म करे और फिर अग्नि के समीप जाकर शीत रुपी 'दोष' को अग्नि के गुण गर्मी से दूर करे। तात्पर्य यह है, ज्ञान से मल, कर्म से विक्षेप और उपासना से आवरण दूर होता है तब कहीँ परमात्मा का अनुभव होता है ।



कमल - इसे थोडा और स्पष्ट करो। ज्ञान से मल, कर्म से विक्षेप और उपासना से आवरण दोष दूर कैसे होते हैं?



विमल - ज्ञान के द्वारा समझ लेना कि संसार के सब प्राणी और सब पदार्थ नाशवान् हैं इसलिए दूसरों के अधिकारों को छीनने का भाव न रखना ही 'मल' दोष दूर होना है । किसी के मन मे 'विक्षेप' अर्थात् चंचलता तब उत्पन्न होती है, जब वह संसार के पदार्थों को जीवन का उद्देश्य समझकर उनका प्रयोग करता है । संसार के पदार्थ वास्तव में साधन तो है परन्तु साध्य अर्थात् जीवन का उद्देश्य नहीं है । यह सिद्धान्त समझकर जो कर्म किया जाता है । वह मनुष्य को जल में कमल की भाँति संसार की ममता से लिप्त नहीं होने देता । निष्काम कर्म से विक्षेप दूर होता है। मनुष्य के मन पर अंहकार या अभिमान का जो एक पर्दा होता है, यह परमात्मा प्रदत्त वस्तुओं को अपनी समझता है । मेरा धन, मेरी स्त्री, मेरा बल, मेरा राज्य, मेरी हुकूमत आदि आदि । अभिमान में वह दूसरो को सताता है । वह समझता है मुझसे बड़ा कोई नहीं । परन्तु जब यह ज्ञानपूर्वक कर्म करता है, मन और इन्द्रियों को बाहर के विषयों से हटाकर शक्तियों को हृदय में एकाग्र करता है और समझता है कि मेरे परमात्मा हैं और मैं परमात्मा के निकट हूँ। बस इसी उपासना से अहंकार अर्थात् आवरण दोष दूर हो जाता है । इस प्रकार तीनो दोषों को तीनो साधनों से दूर करने का निरन्तर अभ्यास परमात्मा का अनुभव करा देता है ।



कमल - मित्र, तुम्हारे समझाने का ढंग तो अच्छा है। तुम तर्क करने में बडे चतुर हो । परन्तु मैं यह पूछता हूँ कि संसार को ईश्वर कीं आवश्यकता ही क्या है?

 
विमल - संसार को आवश्यकता क्या है यह एक ही कही! जब ईश्वर ही न होगा तो संसार बनेगा कैसे? यह पृथ्वी, जल, वायु,  आकाश, सूर्य, चन्द्र, तारे, समुद्र, नदियां, झीलें, झरने, स्रोत, सरोवर, पहाड़, वन, उपवन, लता, तरु, फूल, मेवे, दूध, मधु, अनेक प्रकार के दृश्य, अनेक प्रकार की ऋतुएँ, मनुष्य, पशु-पक्षी, जलचर, थलचर, नभचर, अण्डज, उद्भिज, जरायुज आदि अनेक प्रकार की योनियों तथा समस्त पदार्थों को बिना ईश्वर के और कौन बना सकता है?



कमल - इन पदार्थों के बनाने के लिए ईश्वर की क्या आवश्यकता है? ये तो स्वयं ही बने हुए हैं और सदा से हैं ।



विमल - संसार का कोई भी पदार्थ बिना बनाने वाले के नहीं बनता । यदि स्वयं ही बन जाता तो बिना रसोइये के रोटी, बिना कुम्हार के घड़ा, बिना सुनार के जेवर, बिना हलवाई के मिठाई, बिना दर्जी के कपड़े भी स्वयं ही बन गये होते । दूसरे कोई भी बनी हुई चीज सदा से नहीं होती । प्रत्येक चीज में उत्पन्न होना, बढ़ना, बढ़कर रुक जाना, परिवर्तन होना, घटना और अन्त में नष्ट हो जाना यह छ: विकार मौजूद हैं । बड़े से बड़ा पहाड़, बड़े से बड़ा वृक्ष, बड़े से बड़ा पशु तथा संसार की बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी प्रत्येक वस्तु उत्पन्न हुई है और अन्त को नष्ट हो जायेगी ।



कमल - पर मुझे तो परमात्मा कहीं कोई चीज बनाते हुए नजर नहीं आता । सब चीजें अपने आप ही उत्पन्न हो रही हैं और नष्ट हो रही हैं । ऐसा सिलसिला सदा से रहा है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और उनके परमाणु जगत् में मौजूद हैं, वे ही परस्पर में मिलकर पदार्थों की उत्पत्ति और अलग होकर पदार्थों का विनाश कर रहे हैं । उसमें ईश्वर का क्या काम?



विमल - यह विचार भ्रमपूर्ण है । पृथ्वी आदि तत्व तथा उनके परमाणु जड़ हैं, वे बिना मिलाये न मिल सकते हैं, न अलग हो सकते हैं । मिलना और बिछुड़ना दो विपरीत गुण हैं जो किसी भी जड़ अर्थात् बेजान पदार्थ में एक जगह नहीं रह सकते । किसी भी जड़ पदार्थ में कई गुण तो हो सकते हैं परन्तु दो विपरीत गुण नहीं हो सकते । किसी भी पदार्थ का अगर मिलने का स्वभाव है, तो वह मिलता ही चला जायेगा और अलग-२ रहने का स्वभाव है तो वह कभी मिलेगा ही नहीँ । यदि यह कहो कि प्रकृति के तत्वों में कुछ का स्वभाव मिलना और कुछ का स्वभाव अलग होना हो, तो जिन तत्वों की प्रबलता होगी उन्ही के अनुकूल काम होगा । अर्थात् यदि मिलने वाले तत्वों की प्रबलता है तो वे जगत् को कभी बिगड़ने न देगें और यदि बिगड़ने वाले तत्वों की प्रबलता है, तो जगत् को कभी बनने न देंगें और यदि बराबर-२ रहने का स्वभाव है, तो जहां दो तत्व मिलेंगे वहां दो ही अलग होंगे, तो भी कोई चीज नहीं बन सकती । परन्तु संसार में प्रत्येक चीज बनती बिगड़ती और स्थिर रहती हुई देखी जाती है । प्रकृति के तत्वों में तुम चाहे कितने ही गुणों की कल्पना क्यों न कर लो, नियमपूर्वक, उत्पत्ति स्थिति और प्रलय की सम्भावना बिना ईश्वर के उन में हो ही नहीं सकती । जड़ और चेतन में यहीं अन्तर है कि प्रथम तो जड़ वस्तु काम ही नहीं कर सकती, दूसरे यदि चेतन के सहारे कुछ कार्य करेगी भी, तो एक ही प्रकार का कार्य करती रहेगी। चेतन अर्थात् ज्ञानवान् सत्ता में यह शक्ति है, कि वह किसी कार्य को करे या न करे या उल्टा करे । यह गुण चेतन सत्ता में स्वभाव से ही विद्यमान है ।


कमल - जो किसी पदार्थ का बनाने वाला होता है वह प्रत्यक्ष दिखाई देता है, जेवर को बनाने वाला सुनार, मिठाई को बनाने वाला हलवाई, घड़े को बनाने वाला कुम्हार, घोंसले को बनाने वाला पक्षी ये सब के सब दिखाई देते हैं । अगर ईश्वर दुनियाँ का बनाने वाला होता तो यह भी दिखाई देता ही।



विमल - विश्वास रखो, बनाने वाला अर्थात् कर्ता कभी दिखाई नहीं देता । तुम्हारा यह कहना कि सुनार, हलवाई, कुम्हार आदि दिखाई देते हैं, सर्वथा झूठ है । तुम कहोगे कैसे? अच्छा सुनो कुम्हार, सुनार, हलवाई आदि जितने कर्ता हैं वे दो चीजों के बने हुए है, एक भौतिक शरीर, दूसरा अमर जीवात्मा । शरीर जीवात्मा का क्या है? कार्य करने का एक साधन है । जब जीवात्मा इस शरीर रुप साधन को काम में लाता है, तभी कुछ बना पाता है । अगर इस साधन को काम में न लाये, तो चीज नहीं बन सकती । अब सोचो सुनार, कुम्हार, हलवाई आदि का शरीर तो नजर आता है जो काम करने का एक यन्त्र है और पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि पंचतत्वों से बना हुआ है लेकिन जीवात्मा जो शरीर से काम लेता हैं अर्थात् कर्ता है वह नजर नहीं आता । जीवात्मा बिना शरीर के कोई चीज बना नहीं सकता उसकी शक्तियां सीमित है, इसलिए परमात्मा उसे शरीर देखा है, जो कि दिखाई देता है । परमात्मा असीम अनन्त और सर्वव्यापक है । यह बिना शरीर के ही अपने सारे कार्य करता है । दिखाई दोनों कर्ता नही देते, न जीवात्मा रुपी अल्पज्ञ और अल्पशक्तिमान कर्ता, न परमात्मा रुपी सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ कर्ता ।



कमल - जब परमात्मा के शरीर नहीं तो वह संसार को बना भी कैसे सकता है? बिना शरीर के न तो क्रिया हो सकती है, और न कार्य ही हो सकते है ।



विमल - अब विचार-विनिमय का समय पूर्ण हो चुका है, कल प्रात: इस प्रश्न का उत्तर दिया जाएगा |

कमल - अच्छा, कल ही सही ।


| ओ३म् |

क्या ईश्वर सृष्टिकर्ता है?

| ओ३म् |

वैदिक सिद्धांतो पर आधारित

"दो मित्रो की बातें" - पंडित सिद्ध गोपाल कविरत्न



क्या ईश्वर सृष्टिकर्ता है?




कमल - तो मित्र, कल के प्रश्न का उत्तर दो?


विमल - तुम्हारा कल का प्रश्न था कि जब परमात्मा के शरीर ही नहीं, तो संसार कैसे बना सकता है, क्योकि बिना शरीर के न तो क्रिया हो सकती है और न कार्य हो सकता है? मित्र ! यह भी तुम्हारी भूल है । चेतन पदार्थ जहाँ पर भी उपस्थित होगा, वहीं वह क्रिया कर सकेगा और क्रिया दे सकेगा । जहाँ पर उपस्थित नहीं होगा वहाँ पर शरीर आदि साधनों की आवश्यकता पडेगी । देखो, मैंने यह पुस्तक उठाई । बताओ किससे उठाई?


कमल - हाथ से ।


विमल - अगर हाथ न होता तो मैं पुस्तक को उठा सकता था या नहीं?


कमल - नहीं ।


विमल - अच्छा, हाथ ने तो किताब को उठाया, अब बताओं हाथ को किसने उठाया।


कमल - हाथ को अपनी शक्ति ने उठाया |


विमल - और जो, मैं अपने सारे शरीर को हिला रहा हूँ, बताओ किससे हिला रहा हूँ?


कमल - अपनी शक्ति से ।


विमल - तुम तो कहते थे कि बिना शरीर के कोई क्रिया नहीं हो सकती । फिर बिना शरीर के इस शरीर को क्रिया कैसे मिल गई? पता चला चेतन और उसकी शक्ति जहाँ जहाँ मौजूद है वहाँ वहाँ उसे शरीर की आवश्यकता ही नहीं । जीवात्मा शरीर के भीतर होने के कारण सारे शरीर को क्रिया देता है, और शरीर से बाहर के पदार्थों को शरीर से क्रिया देता है क्योकि वहाँ वह उपस्थित नहीं है । परमात्मा बाहर भीतर सर्वत्र विद्यमान है, इसलिए उसे शरीर की जरुरत नहीं पड़ती । वह सारे संसार में व्यापक होने के कारण सारे संसार को क्रिया देता है।



कमल - मैं देखता हूँ शक्ल वाला ही शक्ल वाली चीज को बनाता है, जैसे हलवाई, सुनार आदि । निराकार परमात्मा जगत् को कैसे बना सकता है?



विमल - जितने शक्ल वाले कर्ता हैं, वे अपने से बाहर की चीजों को बनाते हैं, अपने भीतर की चीजो को नहीं । बाहर की चीजों के लिए हाथ पैर की जरुरत है, भीतर के लिए नहीं । परमात्मा से कोई चीज बाहर नहीं, इसलिए उसे शरीर की आवश्यकता नहीं । हलवाई अपने से बाहर की चीजें बनाता है, यदि उन्हें अपने शरीर के भीतर ही बनाने लगे तो उसे खायेगा कौन? और फिर उसे हाथ, पैरो की आवश्यकता ही क्या है? शरीर के भीतर रस, रक्त, माँस, हड्डी आदि पदार्थ बिना हाथ पैरों के ही बन रहे है । एक बात पर विचार और करो कि इन्द्रियाँ बाहर की चीजें बनाती हैं, और बाहर की चीज ही देखती हैं अगर भीतर की चीजें देखने लग जायें तो जीना भारी हो जाये । भीतर की चीजें सूँघने लगें तो क्या हाल हो? और भीतर का मल, मूत्र, खून, माँस देखने लगे, तो घृणा से व्याकुल हो जायँ । यह तो भगवान् की कृपा है, जो इन्द्रियाँ बाहर की चीजों को देखती है।



कमल - क्या बनाने वाला बनी हुई चीजों में व्यापक होता है? घड़ी-साज ने घड़ी बनाई, घड़ी अलग है, घड़ी-साज अलग है। हलवाई ने मिठाई बनाई, मिठाई अलग है, हलवाई अलग है । दुनियाँ का नियम तो यह है कि बनाने वाला बनी हुई चीज से अलग होता है । परमात्मा सबमें व्यापक भी हो और संसार को भी बनाता हो भला यह कैंसे हो सकता है? दूसरे बिना हाथ पैर के चीजें बन कैसे जाती हैं, समझ में बात आती नहीं है । इनके कर्तापन की जहाँ तक जिम्मेदारी है, वहाँ तक उनकी क्रिया और वे पदार्थ के साथ है । जहाँ वे न हो वहाँ उनसे सम्बन्ध रखने वाली क्रिया हो ही नहीँ सकती । जैसे घड़ीसाज ने घड़ी बनाई, बनाने का मतलब ही है, कि उसके पुर्जो को परस्पर में जोड़कर उसमें क्रिया दे दी । घड़ीसाज ने पुर्जे को जोडा है, पुर्जो को बनाया नहीं । पुर्जो के बनाने वाले दूसरे कर्ता है । घड़ीसाज घड़ी के पुर्जो को जोड़ते समय घड़ी के साथ था । अगर न होता तो घड़ी के पुर्जे परस्पर में मिलकर घड़ी का रुप धारण नहीं करते । इसी तरह पुर्जो के कर्ता और उनकी क्रिया उन पुर्जो के साथ है । यदि वे पुर्जो के साथ न होते तो पुर्जे न बनते । इसी भाँति जिस लोहे से पुर्जे तैयार किये गये उस लोहे को खान से निकालने वाले और उसे गलाकर साफ करने वाले, खान, भट्टी और लोहे के साथ थे । यदि वे साथ न होते तो न तो खान से लोहा निकलता और न साफ हो सकता था । इससे मालूम हुआ कि घड़ी बनाने में केवल एक कर्ता का साथ व हाथ नहीं है, बल्कि अनेकों कर्ताओं की क्रिया से वह घड़ी तैयार हुई है । जिस कर्ता से सम्बन्ध रखने वाली जो क्रिया थी वह कर्ता उसके साथ था । इसी तरह हलवाई, सुनार आदि कर्ताओं की अवस्था है वे सब अपनी-अपनी क्रियाओं के कर्ता है । शेष कर्ता तो और ही हैं जिन्होंने वह सामग्री पैदा कर दी जिससे हलवाई, सुनार आदि अपनी-अपनी क्रियाओं को सफल कर सकें और पदार्थ बना सकें ।


विमल - अब तुम समझ गये होंगे कि मनुष्य जिस चीज को बनाता है, उसमें केवल उसी का हाथ नहीं होता, बल्कि अनेकों मनुष्यों का हाथ होता है, तब जाकर चीज बनती है । ऐसा क्यो होता है? इसलिए कि मनुष्य अल्पज्ञ और अल्प शक्तिमान है । वह अनेक कर्ताओं का सहयोग पाने पर ही किसी वस्तु को बना पाता है । और वे कर्ता अपनी-अपनी क्रियाओं के साथ होते हैं । अब सोचो जब मोटे-२ कामों में उनके कर्ता साथ होते है तो मोटी और बारीक से बारीक सृष्टि बनाने में उसका कर्ता ईश्वर उनके साथ क्यो न होगा? सृष्टि केवल सूर्य, चन्द्र, तारे, पहाड़, वृक्ष, नदियों, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि का ही नाम तो नहीं है, और भी अनन्त और सूक्ष्म ऐसी चीजे है जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते । वे सभी चीज सृष्टि कहलाती है । देखो । पाँच स्थूल भूत, पाँच सूक्ष्म भूत, पाँच तन्मात्राये - अर्थात शब्द, स्पर्श, रुप, रस, गन्ध, अनेक प्रकार के अणु परमाणु जिनसे सृष्टि की रचना होती है, अगर उनका जोड़ने वाला उनके साथ न हो, तो क्या वे पदार्थों का रुप धारण कर सकेंगे । संसार की समस्त चीजें प्रकृति के परमाणुओं से बनी हैं । संसार में आज तक कोई ऐसा यन्त्र नहीं बना, जो परमाणुओं को पकड़ कर जोड़ सके । परमाणु वे सूक्ष्म तत्व हैं जिनके टुकडे नहीं हो सकते । परमात्मा उन परमाणुओं के बाहर भीतर सर्वत्र विद्यमान है, इसलिए वह उन्हें छोड़कर सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल जगत बना लेता है । संसार के जड पदार्थों में परमाणु सबसे सूक्ष्म हैं । परमात्मा उनसे भी अधिक सूक्ष्म है और इसलिए यह उनमें व्यापक है । अगर व्यापक न होता तो सृष्टि बनाने में उसे भी अन्य कर्ताओं की क्रिया का आश्रय लेना पड़ता, जैसा कि संसार के मनुष्यादि प्राणियों को अन्य कर्ताओं व क्रियाओं का सहारा लेना पड़ता है। अत: सिद्ध हुआ, प्रत्येक कर्ता अपनी क्रिया में व्यापक ही होता है, जहाँ तक उसकी क्रिया की जिम्मेदारी है । रहा ये प्रश्न कि बिना हाथ पैरों के चीजें कैसे बन जाती हैं? अगर यह मान लिया जाय कि हर चीज हाथ पैरों से ही बनती है तो जो हाथ पैर चीज बनाते हैं, वे हाथ पैर किससे बने हैं? हाथ, पैर भी तो बने हुये हैं । जब हाथ पैर बिना हाथ पैरों के बन सकते हैं, तो सृष्टि के अन्य पदार्थ बिना हाथ पैरों के क्यों नहीं बंन सकते! मै पूछता हूँ माता के पेट में जो बच्चा बन रहा है, क्या हाथ पैरो से बन रहा है? पृथ्वी पर नाना प्रकार के अंकुर उत्पन्न होकर वृक्ष का रुप धारण कर रहे हैं, क्या उन्हें हाथ पैरों से बनाया जा रहा है? और देखो हाथ पैर तो हाथ पैरों से ही सम्बन्ध रखने वाली चीज बना सकते हैं, दूसरी चीजें नहीं वना सकते । हाथ पैरो से छोटे -छोटे कीटाणु मच्छर और भुनगे तथा उनके सूक्ष्म अंग कैसे बन सकते हैं ? जिस पृथ्वी पर मनुष्यादि प्राणी रहते हैं । उसकी परिधि २५००० मील है, इससे भी लाखो-करोंडो गुणों बडे सूर्य बृहस्पति आदि ग्रह हैं, ये सबके सब हाथों से कैसे बनाए जा सकते हैं? इन समस्त पदार्थों को नियम पूर्वक बनाने वाला सर्वशक्तिमान सर्वव्यापक परमात्मा ही है । यही सारा कार्य नियम पूर्वक चला रहा है।



कमल - आप एक न एक नई बात निकाल देते हें। नियमपूर्वक क्या कार्यं चल रहा है? और क्या नियमपूर्वक चीजें बनी हुई हैं? मै देखता हूँ कहीँ ऊँचा पहाड़ है, कहीं नीची खाई है। कहीं भयानक जंगल है । कहीं रेतीला मैदान है । कहीँ झाड़, झंकार और झाड़ियां हैं । इनमें कौन सा क्रम और कौन सा नियम है? सब यूँ ही ऊबड़ -खाबड़ बेतरकीब और बेनियम संसार बना हुआ है, नियम पूर्वक जो कार्य होता है, वह एक ढंग के साथ होता है । मनुष्य मकान बनाता है, इसमें नियम पूर्वक चौक, आँगन, कमरे, रसोई घर, शौचालय की व्यवस्था करता है। माली बाग लगाता है, उसमें नालियों, क्यारियों, गमले, नहरें, रौस अनेक प्रकार के पेड़-पौधे नियम पूर्वक लगाता है । दुकानदार दुकान लगाता है, सारा सौदा नियम पूर्वक सजाता है । मनुष्यों के कार्य में तो नियम पाया जाता है लेकिन तुम बेढंगी और क्रम विरुद्ध सृष्टि को नियमपूर्वक बतलाते हो जो सरासर प्रत्यक्ष के विरुद्ध है । मेरी समझ में सृष्टि में कोई नियम नहीं है ।



विमल - सृष्टि में कोई नियम नहीं है, यह कहना बेसमझी का प्रमाण देता है । मै पूछता हूँ कि क्या कारण है कि सूर्यं पूर्व दिशा से उदय होता है और पश्चिम में अस्त हो जाता है? क्यों नहीं पश्चिम से उदय होने लगता, क्या यह नियम नहीं है? मनुष्य की बनाई हुई अच्छी से अच्छी घड़ी तेज सुस्त हो जाती है परन्तु परमात्मा की बनाई हुई सूर्य रुपी घड़ी में कभी एक सेकण्ड का भी अन्तर होता है? चंद्रमा के घटने, बढ़ने और छिपने का नियम कैसा अटल है? इसी नियम के आधार पर वर्षों आगे होने वाले सूर्य ग्रहण और चन्द्रग्रहण को बतलाया जा सकता है । इसी प्रकार अन्य ग्रहों और उपग्रहों का हाल है । जरा सोचो तो सही, क्या कारण है कि चने के बीज से चना ही पैदा होता है, गेहूँ नहीं? क्या कारण है आम से आम ही पैदा किया जा सकता है, सेव या सन्तरा नहीं? क्या कारण है कि बच्चा उत्पन्न होकर पहले जवान होता है बाद में वृद्ध? क्यों नहीं पहले बूढा होकर जवान होता है बाद में बच्चा होता है? क्या कारण है कि आँख से दिखाई देता हैं सुनाई नहीं देता क्या कारण है नाक सूंघ सकती है, चख नहीं सकती? इन सबके लिये नियम ही तो हैं । यह कह देना कि कहीं पहाड़ है, कहीं नदियाँ हैं, कहीँ समुद्र है, कहीं ऊंचे-नीचे टीले है, कहीं झाड़-झंकार है, इसलिये सृष्टि नियमबद्ध नहीं, कोरी अज्ञानता है । तुम अपनी बुद्धि के पैमाने से सृष्टि को नापते हो । संसार का नियम है कि जो बात जिसकी समझ में नहीं आती वह उसमें दोष निकालता है । एक चींटी जब मनुष्य के शरीर पर चढ़ जाती है और सिर पर पहुँचती है, तो बालों में उलझ कर सोचती है कि शरीर कैसा बे नियम बना हुआ है? कैसा सिर पर झाड़-झंकार है? सिर से उतर कर नीचे माथे पर जाती है तो सोचती है, यहीं कैसा साफ मैदान पड़ा है । फिर जरा नीचे उतरती है तो आँखों के भौ में उलझकर सोचती है, यहाँ कैसा कांटों का जाल बिछा हुआ है । फिर जरा नीचे उतरती है और आँखों के पास आती है तो सोचती है, अरे! यहाँ कैसी खाई बना रक्खी है । फिर जरा नीचे उतरती है और नाक पर चढ़कर बोलती है यहाँ पहाड़ खडा कर रखा है । नाक के नीचे उतर कर दोनों छेदों को देखकर कहती है यहाँ सुरगें खोद रक्खी है? और नीचे को उतरती है और मूछो में उलझकर बोलती है यहाँ घना जंगल खड़ा कर रखा है । वह चींटी अपनी बुद्धि के नाप से मनुष्य के शरीर को नापती है, और उसे बेनियम बताती है । यदि चींटी की सुविधा के लिए मनुष्य के शरीर को बिल्कुल सपाट और साफ मैदान कर दिया जाय, नाक के छेद बन्द कर दिये जाये, मूंछ और सिर के बाल साफ करके आँखों के गड्ढे भर दिये जायें, नाक को काटकर माथे की तरह सारी शक्ल को समतल कर दिया जाय, तब कहीं उसके लिये मनुष्य शरीर नियमपूर्वक हो सकता है । मैं पूछता हूँ कि यदि चींटी की भावना और बुद्धि के अनुसार मनुष्य का शरीर बना दिया जाए तो वह मनुष्य, मनुष्य रहेगा? और उसमें वह सौन्दर्य और ज्ञानेन्द्रियाँ तथा कर्मेन्द्रियों का नियम पूर्वक व्यवहार रहेगा? हरगिज नहीं । दूसरा उदाहरण लो । एक कारीगर मशीन बनाता है । उस मशीन में हजारों पुर्जे हैं । कोई पुर्जा गोल है, कोई लम्बा है, कोई टेढा है, कोई तिरछा हैं कोई बहुत बडा है, कोई बहुत छोटा है । एक अज्ञानी उस मशीन को देखकर कहता है कि मशीन के पुर्जे बनाने वाला कैसा बेवकूफ है । कोई पुर्जा कितना बड़ा, कोई कितना छोटा कोई कितना लम्बा, कोई जितना चौडा, कोई गोल, कोई चपटा यह कैसा बेनियम सिलसिला जोड़ रक्खा है, यह कैसे बेतरबीब पुर्जे बनाये हैं? बताओ उस मनुष्य का ऐसा सोचना क्या बुद्धिपूर्वक है? मशीन के बनाने वाले ने जिस -जिस प्रकार के पुर्जे बनाना ठीक समझा उसी प्रकार के बनाये । वह जानता था कि इसी प्रकार के पुर्जो से मशीन चल सकेगी । और वह प्रयोजन सिद्ध हो सकेगा जिसके लिए मशीन बनाई गई | अगर वह सारे पुर्जे एक जैसे ही गोल या लम्बे बना देता तो मशीन चल सकती थी? कभी नहीं । यही हाल परमात्मा और उसकी सृष्टि का है । इस सृष्टि रुप मशीन में कहीं बहुत बड़े-बड़े पहाड़ है कहीं छोटे-२ टीले है, कहीं समुद्र हैं, कहीं नदियाँ है कहीं वन और झाडियाँ हैं । परन्तु इस सृष्टि रुपी मशीन का एक प्रयोजन है - जीवों का कल्याण । अज्ञानी मनुष्यों को सृष्टिरुपी मशीन के पुर्जे भौंड़े-भद्दे और बेनियम नजर आते हैं, क्योकि वह न तो जगत् का प्रयोजन समझते हैं और न सृष्टि रुपी मशीन के समुद्र, नदी, पहाड़ आदि पुलों की उपयोगिता समझते हैं । माली और दूकानदार आदि का उदाहरण तुमने दिया है, उनके नियम अत्यन्त छोटे हैं, इसलिये उन्हें तुम शीघ्र ही समझ लेते हो । सृष्टि के नियम विशाल और अत्यन्त सूक्ष्म जिन्हें तुम नहीं समझ पाते हो । जरा विचार तो करो, जिस मस्तिष्क से संसार के मनुष्य नियम बनाते है वह मस्तिष्क भी तो उसी नियामक प्रभु का बनाया हुआ है, जिसने सृष्टि के असंख्य नियम बनाये हैं । अगर संसार के नियम न होते, तो परमात्मा को मानता ही कौन? सृष्टि के अटल नियम ही सृष्टिकर्ता ईश्वर का प्रमाण देते है |


कमल - अच्छा, सृष्टि तो ईश्वर ने बनाई, ईश्वर को किसने बनाया?


विमल - बने हुए पदार्थ कार्य होते है, उनको उपादान कारण और कर्ता की आवश्यकता होती हैं, ईश्वर बना हुआ पदार्थ नहीं है वह अनादि और सनातन हैं । अतएव यह प्रश्न ही नहीं है उठता कि ईश्वर को किसने बनाया । जो स्वयं कर्ता है, उसका कर्ता कौन? यदि कर्ता का कर्ता हो, तो कर्ता नहीं रहता, कारण बन जाता है । कर्ता वह है जो स्वतन्त्र हो । जो बने हुए पदार्थ हैं यह कर्ता नहीं होते मनुष्यादि प्राणी जो कर्ता कहाते है उनका शरीर कर्ता नहीं है साधन है । कर्ता आत्मा है । 'स्वतन्त्र: कर्ता' वही स्वतन्त्र हैं।


कमल - अच्छा कर्ता का कर्ता न सही, लेकिन तुम यह बतलाओं, हमें ईश्वर को क्यों मानना चाहिए । हम उसकी स्तुति, प्रार्थना, उपासना और भक्ति क्यों करें । हमारे जीवन से उसका सम्बन्ध क्या है?



विमल - इस पर विचार कल किया जायगा।


| ओ३म् |

ईश्वर भक्ति क्यों करे?

| ओ३म् |

वैदिक सिद्धांतो पर आधारित

"दो मित्रो की बातें" - पंडित सिद्ध गोपाल कविरत्न

ईश्वर भक्ति क्यों करे?


कमल - लो, मित्र, मै आ गया । कल के प्रश्न का उत्तर दो ।


विमल - तुम्हारा कल का प्रश्न था - ईश्वर की भक्ति क्यों करनी चाहिए, उनकी स्तुति, प्रार्थना से क्या लाभ है? अच्छा सुनो! संसार का प्रत्येक पदार्थ अपने भण्डार या केंद्र की ओर जाना चाहता है । यह नियम जड़ और चेतन दोनों प्रकार के पदार्थों पर लागू होता है । अग्नि की ज्वाला सदैव ऊपर की ओर जाती है, क्योंकि अग्नि का भण्डार सूर्यं ऊपर विद्यमान है । मिट्टी का ढेला चाहे जितनी जोर से ऊपर की और फेंको, वह सदैव अपने भण्डार पृथ्वी की और ही अन्त में आता है । सूर्य की किरणे समुद्र के जल को भाप बनाकर हवा में सम्मिलित कर देती हैं परन्तु वहीँ भाप बादल में परिवर्तित होकर जल बनकर बरसती है और अनेकों नदी-नालों के द्वारा पुन: समुद्र में पहुंच जाती है । यही अन्य पदार्थों का हाल है । संसार में प्रत्येक वस्तु का भण्डार मौजूद है । जल का भण्डार समुद्र, अग्नि का भण्डार सूर्य, वायु का भण्डार वायु-चक्र, मिट्टी का भण्डार पृथ्वी, घटाकाश महाकाश का भण्डार वृह्दाकाश । इसी भाँति ज्ञान का भी भण्डार जगत् में मौजूद है और वह परमात्मा है । मनुष्य को जो भी ज्ञान प्राप्त हुआ है, वह परमात्मा से ही हुआ है । किसी मनुष्य में बिना पढाये ज्ञान-प्राप्ति की योग्यता नहीं है । यदि मनुष्य में बिना पढाये ज्ञान प्राप्ति की योग्यता होती तो स्कूल, कालेज, पाठशालाए तथा विद्यालयों की आवश्यकता ही न थी और न पढाने वालों की आवश्यकता थी । माता, पिता अपने बच्चों को प्रारम्भ में बोलना सिखाते है और पदार्थों का ज्ञान कराते है । यह पैसा है, यह रुपया है, यह रोटी है, यह पानी है, यह चाचा है, यह भाई है ऐसी-२ हजारों बाते याद कराते और बताते हैं फिर वे ही बच्चे पाठशाला ने गुरु द्वारा संसार के विविध विषयों का ज्ञान प्राप्त करते हैं । लेकिन उन माताओं और पिताओं तथा गुरुओं का ज्ञान भी अपना नहीं होता है । उन्होंने भी अपने माता - पिता और गुरुओं से वही बाते सीखी हैं । इसी तरह हर एक व्यक्ति एक दूसरे से ज्ञान प्राप्त करता हुआ चला आया है । प्रश्न उत्पन्न होता है, जब सबने एक दूसरे से ज्ञान प्राप्त किया है, तो सृष्टि के आदि के मनुष्यों ने किन माता-पिता और गुरुओं से ज्ञान सीखा क्योकि उनसे पहले तो कोई था ही नहीं । उत्तर यहीं है, उस समय उन्होंने परमात्मा से ज्ञान सीखा । यदि कहा जाय परमात्मा ने ज्ञान कैसे सिखाया कैसे परमात्मा ने मनुष्यों को पढ़ाया, जब कि उसके शरीर ही नहीं? इसका उत्तर यह है ज्ञान देने और पढ़ाने में अन्तर होता है । पढ़ाया जाता है शब्दों द्वारा और ज्ञान दिया जाता है आत्मा में । परमात्मा सर्वत्र व्यापक होने के कारण उन मनुष्यों में भी व्यापक होता है, जिनको वह सृष्टि के आदि में बनाता है । अतएव अपनी ज्ञानमयी शक्ति से चार ऋषियों की आत्मा में ज्ञान का प्रकाश करता है, जिनके अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा नाम है । वे ऋषि शब्दों द्वारा संसार के अन्य मनुष्यों को फिर पढाते है और तब पढ़ने और पढाने का क्रम चल पड़ता है। अगर परमात्मा सृष्टि के आदि में ऋषियों को ज्ञान न देते, तो पढ़ने-पढ़ाने की परम्परा चल ही नहीं सकती। इससे सिद्ध है कि मनुष्यों ने जो भी ज्ञान सीखा है वह परम्परा से सीखा है, और ज्ञान का विकास किया है वह परमात्मा की दी हुई बुद्धि से परमात्मा की बनाई हुई सृष्टि को देखकर किया है । मनुष्य ज्ञान का विकास तो कर सकता है परन्तु ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक उसे ज्ञान प्राप्त न कराया जाए । आदि सृष्टि में ऋषियों के हृदय में परमात्मा बीज रुप ज्ञान देता है । बाद में वृक्ष रुप विकास ऋषियों और बुद्धिमान् मनुष्यों द्वारा होता है । यहीं सदा से नियम रहा है, और रहेगा । हाँ, तो मैं यह कह रहा था कि जब संसार का प्रत्येक पदार्थ अपने भण्डार की ओंर जाना चाहता है और जाता है ही तो चेतन जीवात्मा जो कि अल्पज्ञ अर्थात् थोड़े ज्ञान वाला है वह ज्ञान के भण्डार चेतन परमात्मा की ओंर जाना क्यों न चाहेगा? जीवात्मा भी परमात्मा की ओंर जाना चाहता है, क्योकि उसका विकास अर्थात् उन्नति बिना परमात्मा के हो ही नहीं सकती । जड़ का जड़ से, और चेतन का चेतन से विकास होता है । संसार के किसी भी जड़ पदार्थ से चेतन जीवात्मा की उन्नति नहीं हो सकती। हाँ, जड़ पदार्थों से जड़ शरीर की उन्नति अवश्य हो सकती है, यदि वह उनका ज्ञानपूर्वक उपयोग बारे । जीवात्मा अज्ञानतावश संसार के पदार्थों में उन्नति की खोज करता है परन्तु उनसे उन्नति होती नहीं इसलिए वह अशान्त रहता है । संसार में जितना भी दुख है वह अज्ञानता के कारण है | पदार्थों की वास्तविकता का अगर जीवात्मा को पता हो तो उसे दुःख हो ही नहीं सकता । दुःख और बन्धनों का आवरण जीवात्मा पर भी तभी तक है जब तक वह अविद्या को विद्या, असत्य को सत्य, जड़ को चेतन समझ रहा है । ज्ञान का भण्डार परमात्मा ही सुखों का भण्डार है । उसके अतिरिक्त सुख संसार के किसी भी पदार्थ में नहीं है । अगर संसार के पदार्थों में सुख होता तो सारा संसार सुखी नजर आता, परन्तु अवस्था यह है कि संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है । जब सुख चाहता है तो पता चला सुख उसके पास नहीं है । यदि होता तो सुख चाहता ही क्यों? बस ईश्वर की भक्ति और स्तुति प्रार्थना करने का यहीं मतलब है कि मनुष्य को परमात्मा से प्रेम हो जाए, जो उसके जीवन का उद्देश्य है। ज्यों-२ मनुष्य परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना और उपासना शुद्ध मन से करेगा त्यों-२ वह ईश्वर के समीप होता चला जायेगा और अन्त में संसार के समस्त दुखो और बन्धनों से छूटकर परमानन्द को प्राप्त हो जायगा । 



कमल - मित्र! तुम्हारा यह कहना मिथ्या है कि संसार के पदार्थों में सुख नहीं है । यदि संसार के पदार्थों में सुख न होता, तो संसार के प्राणी संसार के पदार्थों को क्यों चाहते? यदि धन में सुख न  होता तो लोग धन को क्यों एकत्र करते? भोजन में सुख न होता तो लोग भोजन क्यों करतें? वस्त्रो में सुख़ न होता, तो लोग वस्त्र क्यों पहनते ? यदि मकान महल आदि में सुख न होता तो लोग  उन्हें क्यों बनाते? तात्पर्य यह है कि संसार के प्रत्येक पदार्थों में सुख है तभी लोग उसे चाहते है और उन्हें छोड़ना नहीं चाहते । पदार्थों के संयोग से मनुष्य सुख मानता है और वियोग में दुख मानता है। फिर कैसे मान लें कि संसार में सुख नहीं ।

विमल - मित्र! वास्तव ने संसार के पदार्थों में सुख नहीं है, सुखाभास, अर्थात, सुख सा प्रतीत होता है । सुख तो प्रत्येक मनुष्य के अपने ही अन्दर है । जब मनुष्य संसार के किसी पदार्थ का प्रयोग करता है तो उसे सुख प्रतीत होता है तो वह समझता है कि इस पदार्थ से ही सुख मिल रहा है । पर वास्तव में सुख उस पदार्थ से नहीं मिल रहा है । उसी की चित्त की एकाग्रता से उसे सुख अनुभव हो रहा है। कुत्ता जब हड्डी को चूसता है, तो दाढ़ के छिल जाने से खून निकलने लगता है । ज्यों-२ खून निकलता है त्यों-२ वह और जोर के साथ उसे चूसता है । वह समझता है कि हड्डी से ही खून निकल रहा है । लेकिन निकल रहा है उसकी अपनी दाढ़ से । हड्डी में खून कहाँ है ! ठीक इसी प्रकार संसार के पदार्थों में सुख कहाँ है! सुख तो अपने ही अन्दर है, जो प्रत्येक प्राणी को अनुभव होता है । देखो यदि धन में सुख़ होता, तो कोई धनी दुखी न देखा जाता । परन्तु जितनी चिन्तायें, भय और दुःख धनियों को हैं, उतने निर्धन को नहीं । यदि एक धनवान आदमी बीमारी से कष्ट पा रहा है, तो वह धन से दवा खरीद सकता हैं परन्तु तन्दुरुस्ती नहीं खरीद सकता । यदि वह मूर्ख है, तो पुस्तकें खरीद सकता है, मास्टर नौकर रख सकता है, परन्तु धन से विद्या प्राप्त नहीं कर सकता । विद्या तो परिश्रम से ही प्राप्त कर सकंगा । इसी तरह धन से भोजन खरीद सकता है भूख नहीं खरीद सकता । ऐसे भी मनुष्य संसार में हैं जिनके पास लाखों करोडों रुपये की सम्पति है किन्तु आध पाव दूध चावल भी हजम नहीं कर सकते । अब बताओ धन में सुख़ कहाँ है? यदि भोजन में सुख माना जाय, तो चार रोटी खाने में जो सुख मिलता है, सोलह रोटी खाने में चौगुना सुख मिलना चाहिये, क्योंकि सुख जब रोटी का धर्म है तो रोटी की वृद्धि के साथ-२ सुख़ की मात्रा भी बढ़नी चाहिये | परन्तु होता यह है कि भूख से यदि अधिक भोजन किया जाता है तो पेट में दर्द हो जाता है, और डाक्टर या वैद्य की आवश्यकता पड़ने लगली है, भूख के अन्दर रुखा सूखा भोजन भी अमृत के समान प्रतीत होता है । भूख न होने पर अमृत में भी स्वाद नहीं आता । इसी तरह वस्त्रो को लो । यदि वस्त्रो में सुख माना जाय तो जाडे में ऊन और रुई के मोटे-२ वस्त्र जो सुख़दायक प्रतीत होते हैं, गर्मी में भी वे ही वस्त्र वैसे ही सुख़दायक प्रतीत होने चाहिए और जो वस्त्र गर्मी में सुखदायक प्रतीत होते हैं है सर्दी में भी वैसे ही प्रतीत होने चाहिए । जब सुख वस्त्रो का धर्म है तो प्रत्येक समय उनसे सुख ही मिलना चाहिए । क्या कारण है, गर्मी के वस्त्र सर्दी में और सर्दी के वस्त्र गर्मी में आराम नहीं देते! जो जिसका धर्म है वह प्रत्येक समय एक जैसा ही रहना चाहिए । जैसे अग्नि का धर्म जलाना है, उसे किसी भी समय छुओ, फ़ौरन जलायेगी । मिश्री का धर्म मीठापन है किसी भी समय खाओ मीठी प्रतीत होगी । इसी प्रकार यदि संसार के पदार्थों का धर्म सुख देना हो तो संसार के पदार्थ प्राप्त करने पर मनुष्य सुख की खोज न करते । उन्हें तो प्रत्येक समय सुख का अनुभव होना चाहिए था । भला बताओ तो सही एक मनुष्य जिसे १०५ डिग्री का बुखार चढा हुआ है उसे रेशम की डोरी से बने हुए मखमल बिछे हुए, सोने के पलंग पर लिटा देने से उसके दुःख में कोई कमी हो सकेंगी? कदापि नहीं । इसलिये मैं कहता हूँ सुख संसार के पदार्थों में नहीं, सुख़ का भण्डार केवल परमात्मा ही है ।



कमल - यदि संसार के पदार्थों में वास्तव में सुख नहीं, अपने अन्दर है तो लड्डू या जलेबी खाने पर आनन्द क्यो आता है? मिट्टी खाने है क्यो नहीं आता ! रोटी खाने में आनन्द क्यो आता हैं पत्थर खाने से क्यो नहीं आता? क्या कारण है मिश्री खाने से आनन्द आता है घास खाने से नहीं? क्या कारण है किसी सुन्दर दृश्य को देखने से आनंद आता है, श्मशान को देखने से नहीं?



विमल - लड्डू, जलेबी, मिश्री आदि जितने भी बने योग्य पदार्थ हैं उन्हें खाने पर उन्ही के गुणों का अनुभव होता है, आनन्द का नहीं । जैसे मिश्री खाई तो मिठास मालूम दी और मिर्च खाई तो कड़वापन मालूम दिया । अब न तो कड़वाहट का नाम आनन्द है, न मिठास का । जिस चीज में मनुष्य के चित्त की एकाग्रता हो गयी, उसमें उसने आनन्द समझ लिया यदि मिश्री में आनन्द होता तो ज्वर की अवस्था में आनंद देती, परन्तु ज्वर की अवस्था में मिश्री बेस्वाद प्रतीत होती है । इसी प्रकार मिर्च खाने का जिसे अभ्यास नहीं है उसे मिर्च जहर के समान लगती है । यही अवस्था संसार के अन्य पदार्थों की है । रही यह बात कि मिट्टी खाने से आनन्द नहीं आता? मिट्टी खाने से भी आनन्द आता है, अगर उसमें चित्त की एकाग्रता हो जाए । बहुत से भाइयों और बहिनों को मैंने कच्चे मिट्टी के सकोरे और चिकनी मिट्टी खाते देखा है। बहुत से जानवर कंकड़ और पत्थर खाते है । कंकड़-पत्थर को जाने दो । शराब जैसी दुर्गन्धयुक्त तीखी और कसैली तथा अफीम जैसी कड़वी वस्तु में लोग आनन्द मानते हैं । परन्तु क्या वह आनन्द उन पदार्थों में है? नहीं । आनन्द तो उन्हें मिलता है उन्हीं के चित्त की एकाग्रता से । जितनी देर चित्त में एकाग्रता रहती है उतनी देर तक आनन्द भी रहता है । प्रश्न हो सकता है किसी पदार्थ में चित्त को एकाग्रता कैसे होती है? उत्तर यह है कि किसी भी चीज का मनुष्य जब अभ्यासी हो जाता है, तो उस चीज में में उसको क्षणिक एकाग्रता होने ही लगती है क्योंकि अभ्यास करते-२ मन पर उस वस्तु के संस्कार पड़ जाते हैं और वे संस्कार बार-२ मनुष्य को उसी वस्तु के प्रयोग के लिये प्रेरित करते हैं । यही बात किसी सुन्दर दृश्य को देखने की है । मनुष्य अपना मन प्रसन्न करने के लिए नदी, समुद्र, वन-उपवन तथा पहाड़ो का भ्रमण करने जाता है । लेकिन अगर उसके पीछे कोई भयंकर मुकदमा हो, तो उसे किसी स्थान पर आनन्द नहीं आता । सारे स्थान श्मशान के समान प्रतीत होते हैं । क्योकि मुकदमे की चिंता के कारण उसके मन में एकाग्रता नहीं । एक मनुष्य आकर्षक दृश्य, संगीत गायन आदि का आनन्द लेने सिनेमा जाता है, परन्तु घर में उसका प्यारा पुत्र बीमार है । वह सिनेमा देख रहा है, फिर भी उसे आनन्द नहीं आता | क्यो? इसलिये कि पुत्र के रोग-ग्रस्त होने के कारण उसके चित्त में एकाग्रता नहीं होती। और देखो! यदि मैं तुम्हे इस समय स्वादिष्ट लड़डू खाने को दूँ, और तुम उसे खाने लगो परन्तु में एक काम करुँ तुम्हारा ध्यान किसी दूसरी और कर दूँ, तो तुम सारा लड्डू खा जाओगे, परन्तु तुम्हें उसका स्वाद मालूम नहीं देगा। प्राय: ऐसा होता भी है, मनुष्य किसी पदार्थ को खा जाता है परन्तु ध्यान दूसरी ओर होने के कारण वह उसका दोष-गुण जान ही नहीं पाता है । अतएव सिद्ध हुआ कि सुख बाहर के पदार्थों में नहीं केवल चित्त की एकाग्रता में हैं ।



कमल - तुम तो कहते थे सुख का भण्डार परमात्मा है, अब कहते हो, सुख चित्त की एकाग्रता में है, यह दो तरह की बाते क्यों?



विमल - चित्त की एकाग्रता में ही सुख स्वरुप परमात्मा का अनुभव होता है उसी से सुख मिलता है । अज्ञानी मनुष्य समझता है कि सुख बाहर के पदार्थों से मिल रहा है । ये दो तरह की बाते नहीं हैं । बात एक ही है, परन्तु जरा गहराई से सोचने की चीज है । संसार के पदार्थों में अभ्यास के कारण क्षणिक एकाग्रता होती है, इसलिए क्षणिक आनंद मिलता है यदि पूर्णरुपेण भगवान की भक्ति में  मन एकाग्र करने का अभ्यास किया जाए तो अन्त में परमात्मा की प्राप्ति हो सकती हैं जो मानव जीवन का लक्ष्य है । इसलिए ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना की आवश्यकता है ताकि चित्त अधिक से अधिक एकाग्र हो, और अधिक से अधिक आनन्द मिले ।



कमल - इसका क्या प्रमाण है, कि जितना चित्त, अधिक एकाग्र होगा, उतना ही अधिक आनन्द मिलेगा?


विमल - इसका प्रभाव मैं तुम्हें जाग्रत और सुषुप्ति अवस्था से देता हूँ। देखो जागने की हालत में मनुष्य की वृत्तियाँ संसार के पदार्थों की और फैली रहती है । कभी मन किसी पदार्थ की ओर जाता है कभी किसी पदार्थ की ओंर । इस कारण इसमें स्थिर एकाग्रता उत्पन्न नहीं होगी । लेकिन सोने की हालत में उसके मन की वृत्तियों नितान्त एकाग्र हो जाती है, तब उसे बडा आनन्द आता है प्रातकाल उठकर कहता है - 'मैं बड़े सुख से सोया बड़ी नीद आई ।' उसे सोने से जो आनन्द मिला वह चित्त की एकाग्रता के कारण मिला क्योकि आत्मा का प्रकृति के पदार्थों से सम्बन्ध छूट जाने के कारण परमात्मा से सम्बन्ध हो गया । जीवात्मा का सम्बन्ध या तो परमात्मा से होता है या प्रकृति से होता है । जितना अधिक सम्बन्ध प्रकृति से होगा, उतना ही दुख बढ़ता जायेगा । जितना अधिक परमात्मा से सम्बन्ध होगा, उतना ही सुख बढ़ता चला जायेगा । एक मनुष्य जेलखाने में पड़ा हुआ है । बुखार में पीडित है, पेट में एक फोडा उठा हुआ है । लाखों रुपये का कर्जदार है, घर में आग लग गई है, स्त्री पुत्र का देहान्त हो गया । तात्पर्य यह है कि वह अनेकों अनेक दुखों और चिंताओं से ग्रसित है । ये चिन्ताएँ और दुख कब तक हैं? जब तक वह जागृत अवस्था में है परन्तु यदि वह किसी प्रकार सो जाता है, तो उसके सारे दुख और चिन्ताएँ छूट जाती है । उस समय जो आनन्द एक राजा को आता है वही उसे आता है । मनुष्य ही नहीं सुषुप्ति अवस्था में प्रत्येक प्राणी को आनंद आता है । क्योंकि उस समय मन की वृत्तियाँ फ़ैली हुई नहीं होती । एक स्थान पर एकत्रित होती हैं । चित्त की वृत्तियों की एकाग्रता का नाम ही 'योग' अर्थात परमात्मा से मेल है । सुषुप्ति अवस्था में तो जीवात्मा का बिना ज्ञान के ईश्वर से मेल होता है । परन्तु स्तुति, प्रार्थना और उपासना द्वारा जब ज्ञान पूर्वक परमात्मा से मेल होता है तो उसको आत्मिक उन्नति कहा जाता है। और यह उन्नति समाधि द्वारा पराकाष्ठा पर पहुँचकर जीवात्मा को परमात्मा में तन्मय करा देती है, जो जीवन का उद्देश्य है |


कमल- स्तुति, प्रार्थना, उपासना किसे कहते हैं?


विमल - श्रद्धापूर्वक ईश्वर के गुणों का वर्णन करना 'स्तुति',  उन्ही गुणों को अपने दोषों को सुधारने के लिये ईश्वर से सहायता मांगने का नाम 'प्रार्थना' और संसार के पदार्थों से अहंकार का भाव हटाकर मेरे समीप परमात्मा और मै परमात्मा के समीप हूँ ऐसी दृढ़ धारणा बनाने का नाम 'उपासना' है ।



कमल - मित्र, आप ईश्वर को शरीर से रहित मानते हैं । परन्तु संसार के बहुत से लोग ईश्वर को शरीरधारी मानते हैं और उसकी भक्ति करते है । मैं पूछता हूँ, यदि ईश्वर को शरीरधारी अथवा साकार माना जाये तो उसमें दोष क्या है?



विमल - इस प्रश्न का उत्तर कल दिया जायेगा | 


| ओ३म् |

ईश्वर साकार क्यों नहीं?

| ओ३म् |

वैदिक सिद्धांतो पर आधारित

"दो मित्रो की बातें" - पंडित सिद्ध गोपाल कविरत्न

ईश्वर साकार क्यों नहीं?



कमल - मित्र, कल के प्रश्न का उत्तर दो ।


विमल - तुम्हारा कल का प्रश्न था कि ईश्वर को साकार माना जाय तो क्या दोष है? अच्छा सुनो! ईश्वर को साकार मानने में एक दोष नहीं अनेकों दोष हैं । देखो, ईश्वर का लक्षण सच्चिदानंद है । इसमे तीन पद है- सत्, चित् और आनन्द । सत् का अर्थ है भूत, भविष्य, वर्तमान इन तीनों कालों में एक रस रहने वाला दूसरे शब्दों में जिसमें किसी प्रकार का परिवर्तन न हो सके यह सत् है । ज्ञान वाले को 'चित्' कहते हैं और तीनों कालों में दुख के नितान्त अभाव का नाम 'आनन्द' है। ईश्वर सच्चिदानन्द इसलिए है कि उसमें परिवर्तन कभी नहीं होता । उसका ज्ञान कभी नष्ट नहीं होता और न कभी उसमें दुःख व्याप्त होता है । संसार के जितने भी साकार पदार्थ हैं, उन सब में परिवर्तन होता है । इसलिए वह 'सत्' नहीं। 'चित्' तो केवल आत्मा अथवा परमात्मा ही है, जो कि निराकार है। कोई भी साकार या शरीरधारी दुख से बच नहीं सकता । तीनों काल इसमें आनन्द नहीं रह सकता । सर्दी-गर्मी भूख-प्यास, भय, शोक, रोग, बुढापा, मृत्यु आदि प्रत्येक साकार या शरीरधारी को सताते हैं । ईश्वर इन दोनों से सर्वथा अलग है । अत: ईश्वर को साकार मानने में पहला दोष यह आता है कि वह 'सच्चिदानन्द' और 'निर्विकार' नहीं रहता । क्योकि प्रत्येक साकार पदार्थ में जन्म, वृद्धि, क्षय, जरा, मृत्यु आदि विकार मौजूद हैं । दूसरा दोष साकार मानने में यह है- ईश्वर 'सर्वव्यापक' नहीं रहता । क्योंकि प्रत्येक साकार पदार्थ एकदेशी अर्थात एक जगह रहने वाला होता है । तीसरा दोष यह आता है ईश्वर 'अनादि' और 'अनन्त' नहीं रहता क्योंकि प्रत्येक साकार या शक्ल वाला पदार्थ उत्पन्न होता है इसलिए उसका आदि होता है, वह अनादि नहीं होता है, और न अनन्त होता है जिसका आदि है उसका अन्त अवश्य है और जो उत्पन्न होगा वह नष्ट अवश्य होगा । जिसका एक किनारा है उसका दूसरा किनारा होता ही है । चौथा दोष यह आता है - ईश्वर सर्वज्ञ नहीं रहता । क्योकि जब आकार होया   तो एक जगह होगा, सब जगह नहीं । जब सब जगह नहीं होगा तो सब जगह का ज्ञान भी नहींहोगा। एक जगह का होगा। फलत: ईश्वर 'अन्तर्यामी' भी न रहेगा,क्योकि वह प्रत्येक के मन की बात नहीं जान सकेगा । पाँचवा यह आता है ईश्वर नित्य नहीं रहता है अनित्य हो जाता है । नित्य उसे कहते है कि पदार्थ हो परन्तु उसका कारण कोई न हो । वह किसी के मेल से बना हुआ न हो साकार पदार्थ तत्वों के मेल से बना हुआ होता है। छठा दोष यह आता है- परमात्मा, सर्वाधार नहीं रहता 'पराधार' हो जाता है । परमात्मा 'सर्वाधार' इसलिए है कि सारा संसार उसी के सहारे चल रहा है । सारे ब्रह्माण्ड को उसी ने धारण जिया है । यदि परमात्मा को साकार माना जाये, तो वह किसी न किसी के सहारे रहेगा। यही कारण है कि मतवादियों ने ईश्वर को साकार मानकर उसके स्थान नियत किये है । किसी ने सातवाँ आसमान, किसी ने चौथा आसमान, किसी ने क्षीर सागर, किसी ने गोलोक, किसी ने बैकुंठलोक आदि स्थान उसके रहने के बतलाये हैं । जिस परमात्मा के आधार पर सारा जगत् है, लोगो ने उसे साकार मानकर जगत् को उसका आधार बना दिया । जब परमात्मा ही जगत् के सहारे हो जाया तो फिर जगत् किसके सहारे रहेगा? इसी प्रकार और भी बहुत से दोष साकार मानने में आते हैं ।



कमल - विद्वानों का मत है कि ईश्वर निराकार तो है, परन्तु समय-२ पर अवतार धारण कर साकार हो जाता है । जैसे भाप निराकार है लेकिन समय पर जम कर बादल या बर्फ बन जाती है । 'अग्नि' सर्वव्यापक है, निराकार है परन्तु समय पर स्थूल रुप में प्रकट हो जाता है ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते है | जब संसार का भौतिक पदार्थ निराकार से साकार हो जाते है तो परमात्मा निराकार से साकार क्यों नहीं हो सकता?

विमल - भाप और अग्नि का जो उदाहरण तुमने दिया है वह ठीक प्रतीत नहीं होता | ज़रा गहराई से सोचो | 'भाप' और 'अग्नि' एक पदार्थ नहीं है, किन्तु अनेक परमाणुओ के समुदाय है, जल के असंख्य छोटे-छोटे परमाणु भाप बन जाते है, वे ही परमाणु पुन: स्थूल होकर बादल, बर्फ और जल का रूप धारण कर लेते है | भाप यदि केवल एक ही परमाणु होती और एक रस होती तो वह कभी स्थूल नहीं हो सकती थी | यही 'अग्नि' के परमाणुओ कि अवस्था है, वे अनेक होने के कारण वे परस्पर में मिल कर स्थूल हो जाते है, और अग्नि का प्रचंड रूप धारण कर लेते है| यह कहना कि अग्नि सर्वव्यापक और निराकार है, भयंकर भूल है | 'अग्नि' पृथ्वी और जल से सूक्ष्म है इसलिए पृथ्वी और जल में तो व्यापक मानी जा सकती है, परन्तु आकाश और वायु में नहीं | हाँ आकाश और वायु यह दोनों ही अग्नि में व्यापक है क्योंकि यह दोनों अग्नि से सूक्ष्म है | सूक्ष्म पदार्थ स्थूल में व्यापक होता है | जिन-२ पदार्थो में अग्नि व्यापक है,वे सब पदार्थ रूप वाले है | संसार में जो भी रूप नजर आता है वह अग्नि कि व्यापकता के कारण है| क्योंकि अग्नि का गुण ही रूप है| अतएव सिद्ध हुआ - भौतिक पदार्थ सूक्ष्म से स्थूल और स्थूल से सूक्ष्म इसलिए हो जाते है, कि वे अनेक परमाणुओ से मिलकर बने हुए होते है | परमात्मा सर्वव्यापक, एक और एक रस है | अत: वह निराकार से साकार नहीं हो सकता| रहा यह प्रश्न कि ईश्वर समय-२ पर अवतार धारण करता है | यह सिवाय कोरी कल्पना के और कुछ नहीं है | देखो! अवतार शब्द का अर्थ है - 'उतरना' अथवा जिसमे उतरे | उतरने और चढ़ने का व्यवहार एकदेशी अर्थात एक स्थान पर रहने वाले पदार्थ में हो सकता है 'सर्वव्यापक' में नहीं हो सकता | सर्वव्यापक का आना-जाना, चढ़ना-उतरना सर्वथा असंभव है| जो सब जगह है, वह कहाँ से आयेगा और कहाँ जायेगा?


कमल- क्या रावण, कंस, हिरण्यकश्यप आदि दुष्टों को मारने के लिये ईश्वर का अवतार नहीं हुआ? और क्या भविष्य में दुष्टों के दमन के लिए ईश्वर का अवतार नहीं होगा? मैंने सुना है कि जब-२  धर्म की हानि होती है, तब-२ अवतार होता है ।



विमल - ईश्वर का अवतार न कभी हुआ है, और न कभी होगा । समय-समय पर जो महान् पुरुष उत्पन्न हुए हैं, जिन्होंने दुष्टों का दमन किया है या जनता को ठीक रास्ता दिखलाया है, लोगों ने इन्हें तरह-२ की उपाधियाँ प्रदान की हैं । किसी ने उन महान् पुरुषों को 'नबी' माना, किसी ने ईश्वर का बेटा माना । किसी ने ईश्वर का अवतार माना, किसी ने उन्हें साक्षात् ईश्वर माना । परन्तु वे सब के सब थे मनुष्य ही जरा विचारों तो सही, जो ईश्वर बिना शरीर के शरीरधारी प्राणियों को उत्पन्न कर सकता है, क्या वह ईश्वर बगैर शरीर के शरीरधारी प्राणियों को मार नहीं सकता? आज भी संसार में असंख्य प्राणी पैदा हो रहे है, और मर रहे हैं । क्या ईश्वर शरीर धारण करके उनकी उत्पत्ति और विनाश कर रहा है? ईश्वर के एक ही भूकम्प से लाखो प्राणी मर जाते है । एक ही तूफान में नगर के नगर विध्वंस हो जाते है । एक ही प्लेग, महामारी, हैजा आदि रोग में लाखों मनुष्यों का संहार हो जाता है । भला यह क्या बात हुई कि तुच्छ प्राणियों को मारने के लिए ईश्वर अवतार लेता है उसके सामने रावण, कंसादि चीज ही क्या है? जो परमात्मा सृष्टि की उत्पत्ति प्रलय और स्थिति बिना शरीर के करता है, उसके लिये यह कहना कि दुष्टों को मारने के लिये अवतार लेता है सर्वथा हंसी और उसके घोर अपमान की बात है । 'जब-२ धर्म की हानि होती है तब-२ ईश्वर का अवतार होता हैं' यह कहना भी भूल से खाली नहीं । इसमें सन्हेद नहीं कि अवतार के मानने वाले प्राय: इसी बात को ज्यादा कहा करते हैं । लेकिन यह बात उन्ही के सिद्धान्त से खण्डित हो जाती है । देखो! अवतारवादी मुख्य दस अवतार मानते है और चार युग मानते है । सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग । 'सत युग' में चारो चरण धर्म के मानते है । 'त्रेता'  में तीन चरण धर्म के और एक चरण पाप का मानते है । 'द्वापर' में दो चरण धर्म के और दो चरण अधर्म के अर्थात् आधा पुण्य और आधा पाप मानते है । कलियुग ने तीन चरण पाप के और एक चरण पुण्य का मानते है । अब जरा अवतारों के क्रम पर विचार करो । सत्ययुग में चार अवतार मानते है, त्रेता में तीन और द्वापर में दो मानते है कलियुग में एक अवतार होना मानते है, जो निष्कलंक भगवान् के रुप से अन्त में प्रकट होगा । अब सोचने की बात यह है कि जब सतयुग में चारों चरण धर्म के है, अधर्म है ही नहीं तो चार अवतार किस प्रयोजन के लिये? त्रेता युग में जब धर्म के तीन चरण रहे, तो एक अवतार कम क्यों हो गया, तीन ही अवतार क्यों रहे? द्वापर में जब आधा पुण्य और आधा पाप रहा, तो अवतार दो ही क्यों रह गये? और कलियुग से जब एक ही चरण धर्म का रहा, तीन चरण अधर्म के हो गये तो अवतार एक ही क्यों रहा? और वह भी कलियुग के अन्त में जाकर क्यों होगा? होना तो यह चाहिए था अधर्म की वृद्धि के साथ-२ अवतारों की संख्या भी बढ़ती जाती, परन्तु हुआ यह कि ज्यों-ज्यों अधर्म संख्या में बढ़ता गया त्यों-त्यों अवतार कम होते गये । अब बताओ धर्म की हानि के साथ- २ अवतारों का सम्बन्ध क्या रह गया?



कमल - उन्होंने बड़े-२ चमत्कार दिखाये, जो मनुष्य नहीं दिखा सकता । जैसे गोवर्धन पहाड़ को ऊँगली पर उठाना आदि-२ | इससे मानना पड़ता है कि वे लोग ईश्वर के अवतार थे ।



विमल - प्रथम तो यह बात गलत है कि किसी ने ऊँगली पर पहाड़ उठाया । यदि दुर्जनतोष न्याय से इसे सही भी मान लें तो इसमें ईश्वर या ईश्वर के अवतार की कोई महत्ता प्रकट नहीं होती । तुम कहोगे क्यों? इसलिए कि जो ईश्वर सूर्य, नक्षत्र आदि ग्रहों और उपग्रहों को अपनी शक्ति से धारण किये हुये है उसके सामने गोवर्धन आदि पहाड़ राई के तुल्य भी तो नहीं हैं । जिस पृथ्वी पर हम तुम रहते है उस पर लाखो छोटे-बड़े पहाड़, उस पृथ्वी को ही परमात्मा ने धारण किया हुआ है तो गोवर्धन पहाड़ बेचारा है किस गिनती में यदि ईश्वर या ईश्वर का अवतार होकर किसी ने गोवर्धन पहाड़ उठा भी लिया तो इसमें कौन सी बहादुरी की बात हो गई? अगर एम० ए० के किसी विद्यार्थी ने दूसरी या तीसरी श्रेणी का कोई सवाल हल कर दिया तो क्या उसने कोई तीर मार दिया? हाँ दूसरी तीसरी श्रेणी का बालक होकर यदि एम० ए० का सवाल कर देता है तो वास्तव में उसकी प्रशंसा की बात है । इसी तरह मनुष्य होकर यदि किसी ने पहाड़ उठा लिया होता, तो वास्तव में एक चमत्कार की बात कहलाता, क्योकि मनुष्य से यह आशा न थी, जो उसने करके दिखा दिया लेकिन ईश्वर का अवतार होकर जब पहाड़ उठाया तो इसमें न कोई चमत्कार है, और न इसमें उसकी कोई महानता है ।



कमल - अगर तुम्हारे विचार से ईश्वर का अवतार नहीं होता, तो वह सर्वशक्तिमान् कैंसे माना जायेगा? जब ईश्वर होकर अवतार भी नहीं ले सकता, तो सर्वशक्तिमानपन रहा कहाँ ? सर्वशक्तिमान, तो वही है जो सब कुछ कर सकता हो ।


विमल - मित्र, तुमने विचार नहीँ किया, ईश्वर अवतार लेने से सर्वशक्तिमान् रहता ही नहीं, अल्प शक्तिमान हो जाता है । यदि कहो कैसे? सुनो, जो परमात्मा शरीर धारण करने से पहले बिना हाथों के कार्य कर रहा था, अब वह हाथों से कार्य करेगा । पहले बिना नेत्रों के देख रहा था, अब नेत्रो से देखेगा । पहले बिना कानों के सुन रहा था अब वह कानों से सुनेगा । तात्पर्य यह है अवतार लेने के पूर्व अपने सारे कार्य बिना शरीर के कर रहा था, अब शरीर का मुहताज बन के काम करेगा । जब दूसरे का मुहताज या अधीन बना तो सर्वशक्तिमान रहा कहाँ? जैसे अल्पज्ञ जीवात्मा अपने काम करने में शरीर का मुहताज है वैसे ही परमात्मा भी शरीर का मुहताज बन गया । फिर मनुष्य और ईश्वर में अन्तर ही क्या रहा? जैसे मनुष्य को भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी सताती है वैसे ही शरीरधारी परमात्मा को भी सतायेगी | जैसे राग-द्वेष ज्वर पीड़ा आदि मनुष्य में होते हैं, वैसे ही ईश्वर में भी होंगे सबसे बड़ा दोष तो यह है - ईश्वर अवतार लेते ही पराधीन हो जाता है, स्वाधीन रहता ही नहीं । कहीं उसे भोजन की आवश्यकता होती है, कहीँ जल की और कहीं वस्त्रो की । और कहीं रहने के स्थान की आवश्यकता होती है । समस्त काम अपनी शक्ति से करने वाला जब शरीर की सहायता से काम करने लगा, तो यह सर्वशक्तिमान माना ही कैसे जायेगा । यदि एक मनुष्य दूसरे को अपने नेत्रो की आकर्षण शक्ति से बेहोश कर देता है और दूसरा मनुष्य दवा खिलाकर बेहोश करता है, अब बताओं दोनों में ताकतवर कौन है । ताकतवर तो वह है, जो नेत्रों की शक्ति से बेहोश करता है । क्यों हैं इसलिए कि वह दूसरे को बेहोश करने में दवा का मुहताज नहीं । अब तुम अच्छी तरह समझ गए होंगे, ईश्वर सर्वशक्तिमान् तभी हो सकता है, जब अवतार धारण न करे । तुम्हारा जो यह विचार है कि सर्वशक्तिमान सब कुछ कर सकता है, सिवाय भ्रान्ति के और कुछ नहीं है। सर्वशक्तिमान शब्द का अर्थ तो यह है कि उसमें सर्वशक्तियाँ हैं । यह संसार के सूक्ष्म से सूक्ष्म पदार्थ को मिला सकता है और पृथक कर सकता है । समस्त जीवों को कर्मानुसार फल दे सकता है, सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय कर सकता है, और उसको नियम में चला सकता है । तात्पर्य यह है परमात्मा अपने काम करने में दूसरे का सहारा नहीं लेता यही ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता है । सर्वशक्तिमान का यह अर्थ कभी नहीं होता कि वह असम्भव को सम्भव कर सकता है ।


कमल - क्या ईश्वर असम्भव को सम्भव नहीं कर सकता? यदि नहीं कर सकता तो वह ईश्वर ही नहीं है ।


विमल - असम्भव को सम्भव न करना, नियम को अनियन न करना ही ईश्वर की ईश्वरता है। यदि तुम समझते हो, कि ईश्वर असम्भव को सम्भव कर सकता है तो मैं पूछता हूँ बताओ ईश्वर अपने को नष्ट कर सकता है या नहीं? ईश्वर अपने समान दूसरा ईश्वर बना सकता है, या नहीं?



कमल - ईश्वर अपने को चाहे नष्ट न करे, पर अपने समान दूसरा ईश्वर अवश्य बना सकता है जबकि वह सर्वशक्तिमान है ।



विमल - नहीं मित्र, ईश्वर अपने समान दूसरा ईश्वर नहीं बना सकता । तुम कहोगे क्यों? अच्छा सुनो, कल्पना करो आज ईश्वर ने दूसरा ईश्वर बना लिया है । अब विचारना यह है क्या बना हुआ ईश्वर, ईश्वर के समान हो गया? हर्गिज नहीं । तुम कहोगे क्यों नहीं हुआ? इसलिए नहीं हुआ कि एक ईश्वर तो पुराना रहा दूसरा नया रहा । एक अनादि रहा, दूसरा आदि रहा । दूसरे शब्दों में एक नया बना हुआ रहा दूसरा बेबना हुआ रहा । एक में आयु का सम्बन्ध नहीं क्योंकि वह नित्य है दूसरे की आयु आज से आरम्भ हुई, क्योंकि बनाया गया है । ईश्वर व्यापक रहा, बना हुआ ईश्वर व्याप्य रहा, क्योंकि दोनों व्यापक यों हो ही नहीं सकते । यदि कहो आधे--आधे व्यापक हो गये तो दोनो सर्वव्यापक न रहे । जब सर्वव्यापक न रहे तो दोनो ही ईश्वर न रहे । अत: सर्वशक्तिमान का यह अर्थ ही नहीं है कि ईश्वर सब कुछ कर सकता है । ईश्वर वही कर सकता है, जो ईश्वर को करना चाहिए ।



कमल - यदि ईश्वर का अवतार मान लें तो इसमें हानि क्या होती है?



विमल - यदि ईश्वर का अवतार होता ही नहीं, फिर उसको मान लेना सत्य का गला घोंटना है, यही एक बड़ी हानि है। दूसरी हानि यह है कि सारे संसार की उन्नति करने वाला परमात्मा अवनति को प्राप्त हो जाता है क्यों? इसलिए कि वह नारायण से नर बनता है! नर से नारायण बनना उन्नति का सूचक कहा भी जा सकता है, परन्तु नारायण से नर बनना तो सरासर अपने पद से नीचे गिरना है । कोई रंक यदि राजा हो जाता है तो वास्तव में उसकी उन्नति हुई है । परन्तु राजा से रंक हो जाने को उन्नति का चिन्ह कौन मानेगा, सिवाय भोलो के? तीसरी हानि यह है कि हर एक पाखण्डी अपने को ईश्वर का अवतार कहने लगता है और भोले - भाले स्त्री पुरुषों को अपने जाल में फंसाकर उनका धर्म-कर्म नष्ट कर देता है । उन्हें चेले और चेलियाँ बनाकर उनसे धन लेकर खूब मौजे उडाता है । भारतवर्ष में कई ऐसे पाखण्डियो के उदाहरण मौजूद हैं जिन्होंने अपने को अवतार घोषित किया और स्त्रियों तथा पुरुषों के धर्म और धन को खूब नष्ट किया । चौथी हानि अवतार को मानने से यह है कि लोग अत्याचार के सहने वाले हो जाते है । जब दुष्ट और पापी अत्याचार करते है, बहन-बेटियों की इज्जत खराब करके सम्पति लूट ले जाते हैं, मकानों और दुकानों में आग लगा देते हैं तो अवतारवादी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते है । वे अन्याय और अत्याचार का प्रतिकार नहीं करते। वे सोचते हैं, अन्याय अधर्म का रोकना हमारे यश की बात नहीं है । जब भगवान अवतार धारण करेंगे, तभी दुष्टों का संहार होगा, तभी धर्म की स्थापना हो सकेगी, तभी पाप दूर होगा । और तभी पृथ्वी का भार हल्का होगा। वास्तव में यह एक महान् कायरता है, जो ईश्वर का अवतार मानने के कारण ही लोगो में उत्पन्न हुई है । जिन जातियों में ईश्वर का अवतार नहीं माना जाता वे जातियों अपने दुश्मनों से स्वयं कसकर बदला लेती हैं । वे कभी नहीं सोचती कि अन्यायी और अत्याचारियों को मारने के लिये ईश्वर का अवतार होगा । वे समझती है, जैसे हाथ पाँव भगवान् ने इन अत्याचारियों को दिये है वैसे ही हमें भी दिये हैं, इसलिये वे जातियों दुश्मन से डटकर मुकाबला करती है। वे अपना करने का काम ईश्वर पर नहीं छोड़ती । मित्र कमल, मै तुमसे सत्य कहता हूँ इस अवतार के सिद्धातों ने आर्य जाति को बहुत पतित और पद-दलित किया है । इसने आत्मविश्वास को जाति से सर्वथा निर्वासित कर दिया है ।



कमल - मित्र, तुम्हारी युक्तियों का प्रभाव तो मुझ पर बहुत पड़ा है, अब यह बताओं कि जब ईश्वर निराकार है तो हम उसका ध्यान कैंसे करें?



विमल - परमात्मा की कृपा है जो तुम्हारे ऊपर सत्य सिद्धान्त का प्रभाव पड़ा है । जो प्रश्न अब तुमने किया है इस पर विचार कल किया जाएगा |


| ओ३म् |

ईश्वर का ध्यान कैसे हो?

| ओ३म् |

वैदिक सिद्धांतो पर आधारित

"दो मित्रो की बातें" - पंडित सिद्ध गोपाल कविरत्न


ईश्वर का ध्यान कैसे हो?


कमल - लो मित्र मैं नियत समय पर आ गया, कल का प्रश्न हल करो । जब ईश्वर निराकार है तो उसका ध्यान कैसे हो?


विमल - ध्यान दो तरह का होता है, एक तो संसार के प्राणियों और संसार के पदार्थों का ध्यान, दूसरा सर्वव्यापक, सर्वनियन्ता इन्द्रियों से परे परम प्रभु परमात्मा का ध्यान । संसार से सम्बन्ध रखने वाली वस्तुओं का ध्यान तो उन्हें देखकर अथवा उनके वियोग होने पर होता है । जैसे एक मित्र को मैंने कलकत्ते में देखा उससे परिचय हो गया । फिर पाँच छ: साल के पश्चात् मैने उसे बम्बई में देखा । अब मुझे ध्यान आया कि यह वही मित्र है, जो मुझे कलकत्ते में मिला था । दूसरे वियोग होने पर ध्यान होता है - जैसे मेरे एक मित्र जिससे मुझे अत्यन्त प्रेम है, कहीं बाहर भ्रमण करने चला गया । अब मुझे उसका बार बार ध्यान आता है कि न जाने वह इस समय कहाँ होगा ? जब तक हम दोनों एक दूसरे को देखते रहते थे तब तक ध्यान का कोई सम्बन्ध ही नहीं था, क्योंकि जो चीज सामने है उसका ध्यान कैसा? जब उससे वियोग हुआ, तब उसका ध्यान जाने लगा । यह तो रहा सांसारिक वस्तुओं के ध्यान की बात । ईश्वर के ध्यान की बात इससे सर्वथा भिन्न है । ईश्वर के ध्यान का अर्थ है - मन को निर्विषय करना, अर्थात् मन और इन्दियों में फ़ैली हुई आत्मा की शक्तियों को आत्मा में ही एकत्र करना । जब तक मन और इन्दियों संसार के विषयों की ओर लगी हुई है तब तक ईश्वर का ध्यान आत्मा कर ही नहीं सकता । ईश्वर का ध्यान करने के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि मन और इन्द्रियों को अभ्यासपूर्वक विषयों की ओर जाने से रोका जाया यह याद रखना चाहिए - ध्यान योग के आठ अंगों में सातवाँ अंग है । पहिले यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा इन छ: अंगों का पालन करना आवश्यक है तब कहीं जाकर मनुष्य ध्यान का अधिकारी बनेगा । जब नियमानुसार छ: अंगों का पालन हो जायेगा तब ध्यान तो अपने आप लगने लगेगा । जब ध्यान छ: अंगों के पश्चात है तो मूर्ति के द्वारा पहले ही कैंसे हो जाएगा ?

कमल - मित्र, मन बड़ा चंचल है, यह निराकार में लग कैसे सकता है? इसको लगाने के लिये साकार पदार्थ का सहारा चाहिये । बिना साकार पदार्थ के मन में स्थिरता हो नहीं सकती । 


विमल - प्यारे और भोले मित्र मन तो स्थिर होता ही है निराकार में है, साकार में तो स्थिर हो ही नहीं सकता । क्योंकि साकार पदार्थ शब्द, स्पर्श, रूप, रस आदि विषयों वाले होते है इस कारण उन विषयों में फंसकर मन चंचल रहता है । यदि साकार पदार्थों में मन स्थिर होता, तो सारा संसार ही साकार है, सबका मन स्थिर हो गया होता । परन्तु ऐसा नहीं है । ज्यों-२ सांसारिक पदार्थों में मन फँसता जाता है त्यों-२ मानसिक चंचलता और अधिक बढ़ती जाती है । यदि गहराई से विचार करो तो मालूम होगा कि मन स्थिर नहीं हुआ करता । मन स्थिर होना तो मृत्यु है । मन या हृदय की गति के बन्द हो जाने का नाम ही तो मृत्यु है । मन टिका नहीं कि मनुष्य मरा नहीं, वास्तव में मन की बाहा वृत्तियों का अन्तर्मुखी हो जाना ही मानसिक स्थिरता  है । जब तक मनुष्य जीवित है मनुष्य का मन गतिशील ही रहेगा ।



कमल - तो क्या जो लोग मूर्ति द्वारा ईश्वर का ध्यान करते हैं भूल में हैं । मेरा विचार तो यह है कि मूर्ति द्वारा मन की चंचलता दूर हो सकती है । इसलिये मनुष्य राम, कृष्ण आदि की मूर्तियाँ पूजते हैं ।



विमल - मूर्ति के द्वारा ईश्वर का ध्यान कभी भी नहीं हो सकता । मैं पहले कह चुका हूँ कि ध्यान का अर्थ है - मन का निर्विषय होना । मूर्ति में पाँचों विषय वर्तमान हैं । मोटे तौर पर देखो तो मूर्ति में रुप तो है ही । मेवा, मिष्ठान और दूध, जल जो चढ़ाया है उनमें रस वर्तमान ही है । पुष्प जो चढ़ाए जाते है उनमे गन्ध मौजूद ही है । घंटा घडियाल जो बजाते है उसमे शब्द होता ही है । मूर्ति स्वयं भी पाँच तत्वों से बनी हुई है, जिनका धर्म शब्द स्पर्श, रूप, रस और गन्ध हैं । फिर मूर्ति से मन की चंचलता कैसे दूर हो सकती है? यदि मूर्ति से मन की चंचलता दूर होती तो जिन श्रीकृष्ण की लोग मूर्ति बनाते हैं, वे श्री कृष्ण साक्षात अर्जुन के सामने मौजूद थे परन्तु अर्जुन के मन की चंचलता दूर नहीं हुई । वह श्रीकृष्ण महाराज से कहता हैं -



चंचल हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवदृढम् ।
तस्याहं निग्रह मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् । (गीता)




अर्थात् मन बडा चंचल, हठीला और दृढ़ है । इसे रोकना मैं वायु के समान अत्यन्त कठिन समझता हूँ। यह सुनकर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया-


असंशयं महाबाहो मनोदुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते। । (गीता)


अर्थात् है अर्जुन! इसमें सन्देह नहीं कि मन बडा चंचल और हठीला है, परन्तु अभ्यास और वैराग्य से वह वश में हो सकता है । जब असली श्रीकृष्ण की मूर्ति से अर्जुन का मन स्थिर न हुआ जब कि वह रात-दिन उसे देखता था, तो फिर नकली और जड़ पदार्थों से बनी हुई श्रीकृष्ण की मूर्ति से मन कैसे स्थिर हो सकता है?



कमल - तो क्या मूर्ति पूजा नहीं करनी चाहिये?



विमल - मूर्ति पूजा करनी चाहिए परन्तु बेजान अर्थात् जड़ मूर्ति की पूजा जड़ की तरह और जानदार अर्थात चेतन मूर्ति की पूजा 'चेतन' की तरह करनी चाहिये!



कमल - जड़ की पूजा जड़ की तरह, और चेतन की पूजा चेतन की तरह करनी चाहिए इसका मतलब क्या है, मै समझा नहीं?



विमल - "पूजा" शब्द के धातु संबन्धी और व्यावहारिक कई अर्थ हैं । जैसे पूजा का अर्थ है- सत्कार, आदर, पूजा का अर्थ है - किसी चीज का उचित प्रयोग, किसी चीज की उचित रक्षा, किसी को उचित दण्ड । अब सोचो  मूर्ति की पूजा का क्या अर्थ है? जड़ मूर्ति की पूजा का अर्थ है- उस मूर्ति को साफ-सुथरा रखा जाय । सुरक्षित स्थान पर हो ताकि टूटने, फूटने न पाये, मैली-कुंचेली बेआब और बेकार न होने पावे । यहीं प्रयोग और उचित रक्षा ही जड़ मूर्ति की पूजा है । पूजा शब्द का अर्थ प्रत्येक पदार्थ को सिर झुकाना, पुष्प, पत्र, मेवा मिष्ठान्न आदि चढाना नहीं होता । जैसे किसी ने किसी से कहा - यह जो महात्मा है इनकी पेट पूजा कर दो | तो इसका क्या अर्थ होगा, यहीं कि इसको भोजन करा दो । यह अर्थ नहीं होगा, कि इनके पेट पर फूल, पत्ते, पानी, मेवा और मिष्ठान्न चढा दो। इसी प्रकार किसी ने किसी से कहा -- यह गुण्डा जो ज्यादा बकवास कर रहा हैं इसकी पीठ पूजा कर दो, तब यह मानेगा? अब इसका क्या अर्थ होगा? यह होगा कि इसकी पीठ में दस-पाँच डण्डे लगा दो । यह अर्थ नहीं होगा, कि इसकी पीठ पर फल-कूल और मेवा मिष्ठान्न चढादो । यहाँ एक स्थान पर पूजा का अर्थ भोजन कराना है, दूसरे स्थान पर डण्डे लगाना है, बस इसी प्रकार जड़ मूर्ति पूजा का अर्थ उसको सुरक्षित रखना होता है । उसके ऊपर सामग्री चढाना और नमस्कार करना नहीं होता । क्योकि उस बेजान मूर्ति में वह योग्यता नहीं है जो हमारी श्रद्धा भक्ति को समझ सके और मेंवा मिष्ठान्न तथा फल-फूल से लाभ उठा सके । जितनी चेतन मूर्तियां हैं जैसे माता-पिता, गुरु अतिथि, संन्यासी, उपदेशक तथा अन्य प्राणी वे सब मेवा, मिष्ठान्न, फल-फूल आदि के लाभ उठा सकते हैं । उनकी पूजा, फूल, फल, मेवा, मिष्ठान्न आदि विविध प्रकार के पदार्थों से करनी ही चाहिए । यहाँ पूजा का अर्थ 'आदर' या 'सत्कार' माना जायेगा ।


कमल - जब ईश्वर सब जगह है, तो मूर्ति में भी है, फिर क्यो न मूर्ति को पूजा जाए? पूजा करने वाले पत्थर को नहीं पूजते उसमें व्यापक परमात्मा को ही पूजते है ।


विमल - यह सत्य है कि ईश्वर सर्वत्र होने के कारण मूर्ति में भी व्यापक है । परन्तु यह आवश्यक नहीं है, कि सब जगह होने से सब जगहों में और सब चीजो में उसकी पूजा हो सकती है । देखो! पूजा करने वाला 'जीवात्मा' है । इसका (पूजन करने का) उद्देश्य यह है कि ईश्वर से मेल हो जाय । मेल वहाँ होता है, जहाँ मिलने वाले दोनों मौजूद हो । मूर्ति में ईश्वर तो है पर वहाँ जीवात्मा तो है ही नहीं, जिसे ईश्वर से मिलना है । फिर मिलाप हो तो कैसे? हाँ हर मनुष्य के अपने हृदय में जीवात्मा और परमात्मा दोनों ही उपस्थित हैं । वहीं दोनों का मेल अवश्य हो सकता है । अतएव जिस मनुष्य को ईश्वर से मिलना है उसे अपने हृदय में ही (मन और इन्दियों को वश में करके) ईश्वर की पूजा करनी चाहिए। देखों! ईश्वर सब जगहों में व्यापक है, यह जानकर भी क्या सब स्थानों का जल पीने के योग्य होता है? परमात्मा का वास शेर और साँप दोनों में है, मैं पूछता हूँ क्या शेर और साँप के पास जाना उचित होता है? इसलिये यह कहना कि परमात्मा मूर्ति में व्यापक है, इसलिए मूर्ति की पूजा करनी चाहिए, कोरी अज्ञानता और भोलेपन की बात है । परमात्मा मिश्री में है और विष में भी है, तो क्या विष को खाना चाहिए? हरगिज नहीं । खानी तो वही चीज चाहिए जो खाने योग्य है । मूर्ति पूजा करने वाले समझते तो यही हैं कि हम मूर्ति में व्यापक परमात्मा की पूजा कर रहे है, परन्तु वास्तव में मूर्ति द्वारा व्यापक भगवान् की पूजा होती नहीं । तुम कहोगे क्यों? इसलिए कि जिन पदार्थों को मूर्ति पर चढाया जाता है उनमें भी परमात्मा व्यापक है । जैसे आकाश घड़े में भी व्यापक है और ईट में भी । अब यदि कोई मनुष्य यह चाहे कि घडे में जो आकाश व्यापक है उसके ईंट मार दूँ तो उसकी यह सर्वथा भूल होगी। क्योंकि व्यापक होने के कारण आकाश को ईंट लग नहीं सकती, यदि ईंट उठाकर मारेगा भी तो घडा ही टूटेगा, आकाश नहीं । क्योंकि आकाश तो उस ईंट में भी है । इस प्रकार जो भी पुष्प, पत्र, मेवा, मिष्ठान्न मूर्ति में व्यापक परमात्मा पर चढाया जाता है, वह मूर्ति पर ही चढाना है, भगवान् पर नहीं । क्योंकि भगवान् तो उन पदार्थों में भी व्यापक है ।



कमल - मूर्ति पर फल, पुष्प आदि न चढाये जाये परन्तु उसको श्रद्धापूर्वक देखने से व्यापक परमात्मा और उसकी महिमा का ज्ञान अवश्य हो जाता है।



विमल - यह भी बिल्कुल उल्टी बाते है । ज़रा सोचो तो सही कि मूर्ति को देखने से व्यापक परमात्मा और उसकी महिमा का ज्ञान कैंसे हो जाता है? देखो! तिलों में तेल व्यापक है, परन्तु देखने वाले को क्या दिखाई देगा, तिल या तेल ? तिल ही तो दिखाई देगें । चाहे वह कितनी ही श्रद्धा व ध्यान से उसे क्यों न देखे । तेल कब दिखाई देगा, जब उन तिलों को तोड़ दिया जाय, कोल्हू में पेल दिया जाय । इसी प्रकार मूर्ति में भगवान् व्यापक है, परन्तु देखने वाले को मूर्ति ही दिखाई देगी भगवान नहीं । भगवान तो तभी दिखाई देगा, जब जड़ मूर्ति से नाता तोड दिया जाय और अपने आत्मा में उसकी खोज की जाय । रही ईश्वर महिमा के ज्ञान होने की बात, सो मनुष्य की बनाई मूर्ति में भगवान् की महिमा क्यो दिखाई देगी? उसमे तो मनुष्य की ही महिमा दिखाई देगी कि उसने किस अक्लमन्दी से उसे बनाया है । हाँ,परमात्मा की बनाई हुई चीजो में परमात्मा की महानता अवश्य दिखाई देगी । तुम्हें परमात्मा की महानता देखनी है, तो सारी सृष्टि का विचारपूर्वक अध्ययन करो, फिर देखो ईश्वर की बनाई हुई छोटी से छोटी चीज में जितनी महानता प्रकट होती है इन मनुष्यकृत जड़ मूर्तियों में परमात्मा की महानता का कौन सा चिन्ह है, जो प्रकट होगा?


कमल - मित्र, फल सदैव भावना का होता है, मूर्ति को ईश्वर न मानते हुए भी हम उसमें ईश्वर की भावना करके फल प्राप्त कर सकते है । दूसरे, कोई आदमी किसी स्थान पर एक दम ऊँचा नहीं चढ़ सकता, उसके लिए सीढी (जीना) चाहिए । मै मूर्ति-पूजन को ईश्वर कि प्राप्ति की पहली सीढी मानता हूँ । अतएव यदि कोई मनुष्य भगवान् की कल्पित मूर्तियाँ बनाकर पूजा करता है तो इसमें कोई दोष नहीं ।


विमल - तुम्हे याद रखना चाहिए, भावना किसी चीज की वास्तविकता यानी असलियत को नहीं बदल सकती । कोई मनुष्य अज्ञानवश चूने के पानी में दूध की भावना करले तो क्या उससे मक्खन निकाल सकता है? जल में अग्नि की भावना करने से क्या सर्दी दूर कर सकता है? पत्थर में रोटी की भावना करने से क्या पेट भर सकता है? यदि भावना करने से ही प्रत्येक चीज की प्राप्ति हो जाती तो संसार में न तो लोग दुखी देखे जाते और न परिश्रम करते हुए नजर आते । भावना तभी भावना है, जब वह सत्य पर आश्रित हो नहीं तो वह अभावना है । कोई आदमी जुलाब की गोलियों में चूर्ण की भावना करके उन्हें खा जाये तो क्या उन्हें दस्त नहीं आयेंगे? जिस चीज का जो गुण हैं वह उससे कैंसे दूर हो सकता है, इसलिए यह कहना कि भावना करके फल प्राप्त किया जा सकता है, सरासर अज्ञानता है । देखो! सोमनाथ के मन्दिर के पुजारियों की जड मूर्ति में भावना थी कि यह साक्षात् महादेव जी है । जब महमूद गजनवी ने चढाई की, तो पण्डे और पुजारी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। कहने लगे- सब मिलकर सोमनाथजी का जप करो, वे स्वयं ही म्लेक्षों का संहार कर देन्गे हमें लड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है । इस भावना और विश्वास का जो परिणाम निकला, इतिहास के पढ़ने वाले उसे अच्छी तरह जानते है । सोमनाथ ही क्यों इस भावना से हजारों मन्दिर और मूर्तियों टूट गई । अरबो रुपयों की सम्पत्ति लुटेरे लूटकर विदेशो को ले गये। फिर भी लोगो की अन्धी भावना दूर नहीं हुई। कैसे आश्चर्य की बात है कि बेजान मूर्तियों जो कुछ भी नहीं कर सकती उनमें तो लोगों ने कर सकने की भावना रक्खी और जो जानदार सब कूछ कर सकते थे उनमें न करने की भावना रक्खी। हमारे देश और जाति के पतन का यही तो मूल कारण हुआ । अब तुम समझ गये होंगे कि अज्ञानतापूर्वक भावना कितनी दुखदायक होती है । तुम्हारा जो यह कहना है कि मूर्ति-पूजा  ईश्वर-प्राप्ति की प्रथम सीढी है, यह बात भी बिल्कुल गलत है। हाँ, चेतन मूर्तियों की पूजा तो ईश्वर प्राप्ति की प्रथम सीढी किन्ही अंशो में मानी जा सकती है, जड़ मूर्तियों की पूजा कदापि नहीं। जड़मूर्ति हिमालय पहाड़ पर चढ़ने की चाहे भले ही पहली सीढी मान ली जाए लेकिन ईश्वर प्राप्ति की पहली सीढी कैसे हो सकती जबकि वह ज्ञान-शून्य है? कोई मनुष्य अग्रेजी पढ़ना चाहे तो उसकी सीढी - ए,बी,सी,डी आदि वर्ण होंगे । संस्कृत या हिन्दी पढ़ना चाहे, तो अ, आ, इ, ई आदि वर्ण पहली सीढी होंगे । यदि कोई मनुष्य ए, बी, सी, डी को प्रथम सीढियाँ मानकर संस्कृत पढ़ना चाहे तो कैंसे पढ़ सकता है? अलिफ, बे, पे, ते को पहली सीढी बनाकर अंग्रेजी या संस्कृत पढ़ना चाहे तो कैंसे पढ़ सकता है? जो जिसकी सीढी है उससे ही काम चल सकता है । ईश्वर प्राप्ति की सीढियों चेतन प्राणियों की निष्काम सेवा, सत्संग, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि हैं । इन पर ही लगातार चढ़ने अर्थात् इनका विधिपूर्वक पालन करने से ईश्वर-प्राप्ति हो सकती है । तुमने जो कहा- भगवान् की कल्पित मूर्तियों बनाकर पूजने में क्या दोष है? दोष एक नहीं है अनेको दोष हैं (१) पहिला दोष तो यह है कि नकली चीज में असली जैसे गुण मानकर मनुष्य अपनेआपको ही धोखा देता है| पशु, पक्षी, कीट, पतंग भी अच्छी तरह जानते हैं कि कोई भी नकली चीज असली का काम दे नहीं सकती । बिल्ली के सामने मिट्टी या रबर का चूहा बना के डाल दो वह कभी उसके ऊपर नहीं झपटेगी । भ्रमर के सामने कागज के फूल बना के डालो, वह उन पर कभी नहीं आकर बैठेगा । इस प्रकार अन्य प्राणी नकली चीज से कभी प्रेम न करेंगे । परन्तु मनुष्य जो संसार के प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ होने का दावा करता है, नकली चीजों से यथेष्ठ फल पाने को आशा करता है । भला इससे बढ़कर आश्चर्य और क्या होगा (२) दूसरा दोष यह है कि ईश्वर की कल्पित मूर्ति बनाने वाले अपनी जैसी ही आवश्यकता ईश्वर में भी समझते हैं जैसे मनुष्य भोजन की आवश्यकता अपने लिए समझता है । वैसे ही ईश्वर में समझकर भोग लगाता है, जैसे आप कपडे पहनता है, बैसे ही ईश्वर को पहनाता है । जैसे आप नहाता है वैसे ही ईश्वर को स्नान कराता है जैसे आप सोता जागता है वैसे ही ईश्वर को भी सुलाता है जगाता है, और जैसे आप आभूषण पहनता है, वैसे ही ईश्वर को भी पहिनाता है । जब मनुष्य अपनी जैसी आवश्यकतायें ईश्वर में भी मानता है तो उससे कल्याण की क्या आशा की जा सकती है? जो स्वयं ही जरुरत मन्द है वह दूसरे की जरुरत कैंसे पूर्ण कर सकेगा, क्या अन्धा अँधा को रास्ता दिखा सकता है? हरगिज नहीं! (३) तीसरा दोष यह है- ईश्वर एक है और मूर्तियों अनेक हैं क्योंकि प्रत्येक सम्प्रदाय ने अपने-२ विश्वास के अनुसार मूर्तियों बनाई हैं। फलत: आपस में साम्प्रदायिक राग-द्वेष, लडाई-झगड़ा रहता है जिससे जातीय (राष्ट्रीय) संगठन को बहुत बडा धक्का लगता है । ऐसे सैकडों दोष बताये जा सकते है।



कमल - तो तुम्हारा मतलब यह है कि मूर्ति को न तो बनाना चाहिए और न पूजा करनी चाहिए । मैं तो समझता हूँ शान्त वीतराग और महान् पुरुषों के चित्र और मूर्ति देखने से मन को शान्ति मिलती है और प्रभाव भी पडता है।



विमल - मेरा मतलब यह हरगिज नहीं कि मूर्तियों और चित्र न बनाना चाहिए । मैं तो कहता हूँ बनाने चाहिए। संसार के महान् पुरुषों की मूर्ति या चित्र बनाना उनकी यादगार को कायम रखना है,परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि चेतन मनुष्यों की तरह उनकी पूजा करनी चाहिए या उनको परमात्मा या परमात्मा का प्रतिनिधि समझकर धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की याचना उनसे करनी चाहिए बेजान चीज बेजान ही है, उनमें यह योग्यता कहाँ है कि वह जीवित मनुष्य या परमात्मा के स्थान में काम आ सकें । जो पिता जीवित अवस्था में पुत्र से प्रेम कर सकता हैं मरने पर भी क्या वैसा ही प्रेम कर सकेगा, जिस शरीर से पिता ने पुत्र को गोद में लेकर खिलाया प्राण निकल जाने पर वहीं शरीर क्या पुत्र के किसी काम में आता है? उस मृतक पिता के शरीर में और पत्थर की बनी हुई मूर्ति ने क्या  फर्क है? यही कि पत्थर या धातु की मूर्ति सड़ती नहीं, मृतक का शरीर सड़ जाता है । अन्यथा और बाते एक जैसी ही हैं, उनकी पूजा का अर्थ ही यह है कि उनका ठीक इस्तेमाल किया जाए । यदि उनका इस्तेमाल न किया जायेगा तो वे ही पदार्थ मनुष्य को हानि पहुँचायेंगे । यदि कहो कैसे? तो सुनो! एक मनुष्य गंगा जी का भक्त है, रात दिन पूजा करता है । फूल बताशे चढाता है और गंगलहरी का पाठ करता है । परन्तु वह तैरना नहीं जानता । एक रोज जरा गहरे पानी में चला जाता है अब बताओ, उसे गंगा डुबोयेगी या नहीँ? चाहे वह उसका जितना ही बड़ा भक्त क्यो न हो, तैरना न जानने के कारण गंगा फ़ौरन डुबो देगी । एक दूसरा मनुष्य है जो गंगा को माता न मानकर एक नदी मानता है । हत्या करके आ रहा है । खून में लथपथ है । तुरन्त गंगा में कूद पड़ता है, लेकिन तैरना जानता है । बस फिर क्या? गंगा की छाती को चीरकर फौरन निकल जाता है । ऐसा क्यों हुआ? इसलिए कि वह जल का ठीक इस्तेमाल करना जानता था जब कि पहला जल की गलत पूजा करता था, इसलिए गंगा ने पहले को डुबो दिया दूसरे को बचा दिया । एक तो गंगा की पूजा करने वाले वे लोग हैं जो सिर्फ स्नान में ही मुक्ति मानते हैं, प्रतिवर्ष लाखों करोडों रुपये रेलवे कम्पनियों को दे  देते हैं । धक्के खा-खाकर दु:खी और परेशान होते हैं । उन्होंने गंगा की पूजा-स्नान करना, सिर झुकाना और फल-फूल चढाना ही समझा है । दूसरे वे लोग हैं, जिन्होंने गंगा से नहरें निकाली हैं फलत: करोड़ो रुपये सिचाई से प्राप्त किये। गंगा से बिजली निकाली और गंगा से चक्कियाँ पिसवायीं । वे लोग गंगा में स्नान करने कभी नहीं गए, बल्कि नलों द्वारा उन्होंने अपने घर में ही गंगा को बुला लिया । और सब तरह से फायदा उठाया । फ़ायदा क्यो न उठाते, जब उन्होंने जड़ पदार्थ की पूजा का अर्थ और उसका उचित प्रयोग करना समझा है? गंगा ही क्या, प्रत्येक जड़ पदार्थ के विषय में ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं । रही मूर्ति या चित्र को देखकर प्रभाव पड़ने की बात, इसके सम्बन्ध में भी जरा सोचो । अच्छा या बुरा प्रभाव मूर्ति या चित्र देखने से नहीं पड़ता किन्तु अपने आन्तरिक संस्कारों के कारण से पड़ता है । जैसे एक हिन्दू ने राम या कृष्ण की मूर्ति को देखा । वह उसक आगे श्रद्धा से सिर झुका देता है । वह सिर क्यों झुकाता है? इसलिए कि वह राम और कृष्ण का इतिहास जानता है । उसके हृदय पर संस्कार पड़ा हुआ है कि राम और कृष्ण ईश्वर के अवतार थे उन्होंने रावण और कंस को मारा है । यह संस्कार चाहे पुस्तकों के पढ़ने से पड़ा हो, चाहे एक दूसरे से सुनकर पड़ा हो, पड़ा अवश्य है । इसलिए मूर्ति को देखकर यह प्रभावित होता है। लेकिन उसी हिन्दू के सामने अगर जापान के देवता "कनफ्यूशियस" की मूर्ति आ जाये तो उसे देखकर वह कभी प्रभावित न होगा, न उसने उसके प्रति श्रद्धा उत्पन्न होगी । क्योकि 'कनफ्यूशियस' के बारे ने वह कुछ नहीं जानता, उसके हृदय पर उसका कोई संस्कार नहीं है, इसलिए वह उसे सिर नहीं झुकाता । एक मुसलमान किसी भी हिन्दू देवी देवता की मूर्ति को देखकर श्रद्धा से सिर नहीं झुकाता इसका क्या कारण है? यही कि उस मुसलमान के हृदय पर उसका कोई संस्कार नहीं है । उसे एक निर्बल तथा कुरुप मुसलमान का चित्र तो अच्छा लगता, परन्तु हिन्दू देवी देवता की मूर्ति या चित्र अच्छा नहीं लगता, न उसमें उसको श्रद्धा होती है । मुसलमान का चित्र अच्छा क्यों लगता है? इसलिए कि उसके मन में 'मोमिन' या इस्लाम का सहायक होने के संस्कार दृढ़ हो रहे है । अब तुम समझ गये होंगे कि जो कोई भी प्रभाव पड़ता है, वह अपने संस्कारों के कारण पड़ता है, मूर्ति को देखने से नहीं । यदि मूर्ति को देखने से पड़ता तो प्रत्येक मनुष्य के मन पर प्रत्येक मूर्ति को देखने से पड़ता और उसको शान्ति मिलती । परन्तु ऐसा नहीं होता ।



कमल - जैसे स्कूल में नक्शे दिखाये जाते हैं, छोटे से नक्शे से सारे संसार का ज्ञान प्राप्त करा देते हैं । इसी प्रकार छोटी मूर्ति से विशाल परमात्मा का ज्ञान भी प्राप्त कराया जा सकता है?



विमल - प्यारे मित्र! नक्शा साकार जगत् का बनाया जाता है और उससे समुद्र, नदी, झील, पहाड़, नगर, कस्बा, सड़क, रेलें आदि का ज्ञान कराया जा सकता है । परमात्मा सर्वव्यापक और निराकार है । अत: उसका नक्शा (मूर्ति) सम्भव नहीं है, न इससे परमात्मा का ज्ञान हो सकता है ।



कमल - अक्षर और शब्द निराकार हैं परन्तु उनकी मूर्ति बनाकर बालको को बोध कराया जाता है कि नहीं? यदि अक्षरों और शब्दों का आकार न बनाया जाये, तो लड़के कैंसे विद्या प्राप्त कर सकें?

विमल - अक्षर और शब्द आँख से नहीं देखे जाते, परन्तु कानों से सुने तो जाते है। समझने के लिए जो कान का विषय है, उसे नेत्रों का लोग बना लेते है । लेकिन जो किसी इन्द्रिय का विषय न हो, उसे समझाने के लिए किस इन्द्रिय का विषय बनाया जाये? किसी का भी नहीं । उसे तो केवल अनुभव द्वारा ही जाना जा सकता है और यह भी कोई आवश्यक नहीं कि निराकार अक्षरों और शब्दों के कल्पित चिन्ह ही बनाये जाये तभी विद्या प्राप्त हो सकती हैं । यदि ऐसा होता तो अंधे मनुष्य तो पढे हुए मिलते ही नहीं? क्योंकि उन्होंने न तो अ, आ, इ, ई का रुप देखा है, और न ए, बी, सी, डी का । लेकिन अंधे मनुष्य अंग्रेजी, संस्कृत आदि भाषाओ के बड़े-२ विद्वान मिलते हैं। दूसरे लिखे हुए कल्पित चिन्ह वर्ण कहलाते हैं, अक्षर नहीं । जो बोला जाता है वह अक्षर है और निराकार है और जो लिखा जाता है वह वर्ण है और साकार है।



कमल - अच्छा समय निराकार है, परन्तु उसकी मूर्ति घड़ी के रुप में बनाकर काम निकालते हैं या नहीं?



विमल - घड़ी समय की मूर्ति नहीं है, सूर्य की मूर्ति है । जैसे सूर्य से समय का ज्ञान होता है वैसे ही घड़ी से समय का ज्ञान होता है। घडियों का सारा क्रम सूर्य पर निर्भर है ।



कमल - निराकार का ध्यान करें तो कैंसे करें? यदि मूर्ति सामने हो तो उसका ध्यान भी होता रहे । निराकार का ध्यान करने बैठे, आँखे मींचली अब चीज कोई सामने नही हो तो मन लगेगा भी कैंसे?


विमल - जगत् दो तरह का है - एक आध्यात्मिक दूसरा भौतिक । आध्यात्मिक का अर्थ है आत्मा सम्बन्धी और भौतिक का अर्थ है पृथ्वी, जल, अग्नि आदि पञ्च भूतों सम्बन्धी | याद रखो परमात्मा सम्बन्धी विचार आध्यात्मिक जगत से सम्बन्धित है। जब तुम ध्यान करने बैठे और मूर्ति का आकार ही मन और मस्तिष्क में घुमाते रहे तो फिर आध्यात्मिक अर्थात् परमात्मा सम्बन्धी चिन्तन कहाँ हुआ वह तो भौतिक अर्थात, भूत सम्बन्धी हुआ, क्योंकि मूर्ति पंच भूतों से बनीं है । आध्यात्मिक ध्यान तो तभी बनेगा जब संसार की समस्त मूर्तिमान वस्तुओं का विचार छोड़कर आत्मा में ही परमात्मा की व्यापकता का अनुभव करोगे । परमात्मा और आत्मा में देश काल की दूरी नहीं केवल ज्ञान की दूरी है । अज्ञान का परदा हटते ही परमात्मा का अनुभव होने लगता है । रही मन लगने की बात सो मन तो लगाने से लगता है । जिस काम का भी अभ्यास करोगे उसमें मन लगेगा। अभ्यास से संसार के सारे काम सिद्ध हो जाते हैं । बहुत सी स्त्रियाँ पानी के दो तीन घडे सिर पर रखकर और गोद में बच्चे को लेकर आपस में बातचीत करती हुई ऊबड़-खाबड़ भूमि पर चली जाती हैं क्या मजाल जो एक बूँद भी पानी गिर जाये । एक नट लम्बे बाँस पर कई-२ घडे और दोनों हाथों में दो-दो लड़के लिए हुए चढ़ जाता है । सरकसों में तार पर साइकिलें लड़कियों चलाती है । कुत्ते, बिल्ली तक भी तोप और बन्दूक चलाते हुए देखे जाते हैं । यह सब अभ्यास का ही तो परिणाम है । दुबले-पतले आदमी चार बजे उठकर ठण्ड में गंगा, जमुना नहाने चले जाते हैं । और बडे-२ तगडे और तन्दुरुस्त चार बजे रजाई से मुँह खोलते हुए भी घबराते हैं। क्यों? जिन्होंने नहाने का अभ्यास डाला हुआ है, उनके लिए जाड़ा गर्मी सब एक समान है । इसी प्रकार जिन्होंने भगवान के चिन्तन का अभ्यास जाना हुआ है. यम-नियम आदि की साधना द्वारा वे घण्टों नदी, पर्वतों और एकान्त स्थान में बैठे-२ चिन्तन करते हैं । और जो लोग समाधि लगाते हैं है कईं-कई दिन तक ध्यान करते रहते हैं । क्या वे लोग किसी मूर्ति का ध्यान करते हैं? हरगिज नहीं । गहराई से सोचो, तो मूर्ति में मन लगता ही नहीं क्योंकि कभी नाक का ध्यान होगा, कभी आँख का, कभी हाथ पैरों का, मन अंगों में ही चक्कर काटता रहेगा । मन के आगे जब कोई मूर्ति नहीं होगी तभी उसकी वृत्तियाँ आत्मा की ओर लगेगी।


कमल - हलवाई की दूकान से मै चार आने के पेड़े लाता हूँ, जिन्हें खाकर स्वाद आता है । पेडा साकार है और स्वाद निराकार है| हलवाई से कहा जाये, चार आने का स्वाद दे दो जो निराकार है तो कैसे देगा? इससे पता चलता है कि साकार मूर्ति से ही निराकार परमात्मा का आनन्द आ सकता है ।



विमल - मित्र, देखो! जो जिसका गुण है, खाने पर वह तो प्रतीत होगा। पेड़े खाने से पेड़े का स्वाद आयेगा, लड्डू खाने पर पेडों लड्डू का स्वाद आयेगा । पेड़े और स्वाद से गुण-गुणी का सम्बन्ध है न कि व्याप्य व्यापक का। पेड़े द्रव्य है स्वाद उसका गुण है । परन्तु मूर्ति और परमात्मा दोनों द्रव्य है । पेड़े खाने से तो उसका गुण स्वाद प्रतीत हो जाएगा, परन्तु मूर्ति से परमात्मा का आनन्द कैसे प्रतीत होगा, जबकि मूर्ति का परमात्मा गुण नहीं है । दूसरे पेड़ा खाने पर ही पेडे का स्वाद आता है । कोई आदमी मिट्टी का नकली पेड़ा बनाकर खाने लगे तो क्या स्वाद आ जाएगा ? हरगिज नहीं! इसी प्रकार परमात्मा का अनुभव करने पर ही परमात्मा का आनन्द आ सकता है, परमात्मा के स्थान पर नकली मिट्टी-पत्थर के परमात्मा की मूर्ति बनाने पर परमात्मा का आनंद कैंसे आ जायगा?



कमल - जिस तरह राजा की मूर्ति के कारण नोटों और रुपयों का व्यवहार सुखदायक है इसी प्रकार मूर्ति की पूजा सुखदायक है ।



विमल - प्रथम तो राजा शरीरधारी है उसकी मूर्ति नोट और रुपयों पर बन सकती है, परमात्मा निराकार है उसकी मूर्ति नहीं बन सकती | दूसरे नोट और रुपये राजा की आज्ञा से राजा के ही कारखाने में बने हुए सुखदायक हैं, यदि कोई मनुष्य राजा की आज्ञा के विरुद्ध जाली सिक्का अपने घर में बनाने लगे, तो जेल की हवा खाये बगैर न रहे । इसी प्रकार परमात्मा की बनाई हुई मूर्तियों का यथायोग्य व्यवहार ही सुखदायक है, परमात्मा की आज्ञा के विरुद्ध परमात्मा के स्थान में मिट्टी पत्थर की जाली मूर्तियाँ बनाना और उनकी पूजा करना अनेक योनि रुप जेलखाने में जाने का प्रयत्न करना  है।


कमल - महाभारत में आता है- एकलव्य ने द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर शस्त्र विद्या सीखी थी।

विमल - द्रोणाचार्य कीं मूर्ति थी तब एकलव्य ने उनकी प्रतिमूर्ति बनाई उसने परमेश्वर के स्थान में उसकी पूजा नहीं की। दूसरे शस्त्र-विद्या मूर्ति ने नहीं सिखलाई, यदि मूर्ति ही सिखलाती तो उसे अभ्यास करने की क्या आवश्यकता थी ? उसने सारी शस्त्र-विद्या अभ्यास से सीखी । द्रोणाचार्य को इस बात का पता भी न चला । जब पता चला तो मूर्ति बनाने का फल अपना अँगूठा काट देना मिला । मूर्ति में यह योग्यता कहाँ है, कि वह किसी काम को सिखा सकें? यदि सिखा सकें तो व्यास जी की मूर्ति रखकर प्रत्येक को उससे वेद पढ़ लेना चाहिए । कुबेर की मूर्ति से प्रत्येक को धन प्राप्त कर लेना चाहिए । जड़ मूर्ति से सिवाय जड़ता के और कोई गुण मिल भी क्या सकता है? एक बैरा अंग्रेजों को नौकरी करके अँग्रेजी बोलना सीख जाता है । हलवाई की नौकरी करने वाला मिठाई बनाना सीख जाता है । अग्नि के पास बैठने से गर्मी महसूस होती है, और पानी के पास बैठने से शीतलता । जिसकी संगति की जायेगी उसका गुण अपने अन्दर आयेगा जड़ मूर्तियों की संगति से जड़ता आई, लोग पिटे, मन्दिर टुटे । देश में भयंकर गुलामी और गरीबी आई। जड़ की संगति से आत्मविश्वास और कर्मण्यता नष्ट हुई ।



कमल - अच्छा, इस पर तो काफी विचार हो चुका है, अब यह बताओं, ईश्वर दयालु और न्यायकारी है या नहीं? यदि है, तो दया न्याय दोनों साथ-साथ कैंसे रह सकते हैं? क्योंकि जब दया करेगा तो न्याय नष्ट हो जायेगा और न्याय करेगा तो दया नष्ट हो जायेगी ।



विमल - इस पर विचार कल होगा।


| ओ३म् |

ईश्वर न्यायी है या दयालु?


| ओ३म् |

वैदिक सिद्धांतो पर आधारित

"दो मित्रो की बातें" - पंडित सिद्ध गोपाल कविरत्न


ईश्वर न्यायी है या दयालु?


विमल - तुम्हारा कल का प्रश्न था दया और न्याय दोनों गुण ईश्वर में साथ-२ कैसे रह सकते है? वास्तव में दया और न्याय दोनों साथ-२ ही रहते हैं । अन्तर केवल यह है, दया दयालु ईश्वर अपनी तरफ से करता है और न्याय वह जीवो के कर्म के अनुसार करता है । जैसे किसान ने खेत में दाना बोया, उस एक दाने की एवज में सैकडों दाने भगवान् ने उसे दिये । यह उसकी दया है अब न्याय उसका यह है, जैसा तुमने बोया वैसा ही काटोगे । जैसा करोगे वैसा ही भरोगे । चना बोकर चना प्राप्त हो सकता है गेहूँ नहीं, यहीं उसका 'न्याय' है । एक पिता के चार पुत्र हैं । चारों को उसने एक-२ हजार रुपया दिया । यह उसकी पुत्रों पर दया है । परन्तु यदि कोई दूसरे पुत्र से रुपये जबरदस्ती छीन लेता है, तो पिता रुपये छीनने बाले पुत्र को दण्ड देता है । यह उसका 'न्याय' है । रुपयों का देना पिता का अपनी ओर से है इसलिए यह 'दया' है और दुष्ट पुत्र को दण्ड देकर अधिकारी को उसका अधिकार दिलाना पिता का न्याय है । एक राजा डाकू को प्राणदण्ड देता है यह उसका 'न्याय' है, प्राण-दण्ड देकर डाकू द्वारा पीडित मनुष्यों की वह रक्षा करता है यही उसकी दया है । यदि राजा डाकू को छोड़ ड़ेता है तो यह उसका 'अन्याय' है। वास्तव ने जो मतलब 'दया' से निकलता है वही न्याय से निकलता है जहाँ न्याय न हो वहाँ दया कैसी? क्या अन्यायी मनुष्य भी कभी दयालु हो सकता है? 'अन्यायी' तो स्वार्थी होता है, दयालु नहीं | परमात्मा न्यायकारी होने से दयालु है । उसने जीवों के कल्याण के लिए सृष्टि बनाईं, यह उसकी पूर्ण दया है । ईश्वर कर्मानुसार प्रत्येक प्राणी को फल दे रहा है, यही उसका न्याय है।



कमल - जब कोई मनुष्य बुरा कर्म करता है, तो उसको परमात्मा जानता है या नहीं? यदि जानता है, तो उसे तत्काल ही क्यों नहीं रोक देता ?



विमल - परमात्मा प्रत्येक को बुरे कर्म से तत्काल ही रोकता है । इसका सबूत यह है, जब मनुष्य बुरा कर्म करने को उद्यत होता है तो उसके अंतकरण में उसी समय भय, लज्जा, शंका के भाव  उत्पन्न होते हैं और अच्छा कर्म करता है तो हृदय में उसी समय आनन्द उत्साह उत्पन्न होता है । यह सब परमात्मा की ओर से ही होता है । इसी को अन्तकरण को आवाज कहते है । मनुष्य ही क्या पशुओं तक के अन्तकरण में बुरा कर्म करने पर भय, लज्जा, शंका उत्पन्न होती है । कुत्ते को जब रोटी का टुकडा डाला जाता है, तो यह उसी जगह उस टुकडे को आनन्दपूर्वक खाता रहता है, और पूँछ हिलाता जाता है । वही कुत्ता जब रोटियाँ चुराकर भागता है, तो न पूँछ हिलाता है और न खुला खाता है । बल्कि छिपकर आड़ में खाता है, क्यों? इसलिए कि वह जानता है, यह पाप है, चोरी है इससे सिद्ध हुआ कि परमात्मा बुरे कर्म करने से हरेक प्राणी को उसी वक्त रोकता है । हाँ इतनी बात अवश्य है परमात्मा किसी जीव की कर्म करने को स्वतन्त्रता को नहीं छीनता। स्वतन्त्रता छीन भी कैसे सकता है, जबकि जीव 'अनादि' है और कर्म करने में स्वतन्त्र है? दूसरे यदि ईश्वर जीवों की स्वतन्त्रता छीन भी ले तो वे जीव न तो जीव ही रहेंगे और न उनकी उन्नति ही हो सकेंगी । जैसे यदि किसी स्कूल में लड़कों का इम्तिहान हो रहा है, मास्टर तमाम लडकों पर निगरानी रख रहा है कि कोई लड़का किसी का सवाल न देख ले । कईं लड़के उत्तर गलत भी लिख रहे हैं । मास्टर गलत उत्तर लिखते हुए भी देख रहा है । परन्तु वह उस समय लड़कों को रोकता नहीं, लिखने देता है। यह उनकी स्वतन्त्रता में बाधा नहीं डालता । यदि मास्टर समस्त लड़कों को स्वयं ही सही उत्तर लिखा दे, तो इसमें लड़कों की व्यक्तिगत उन्नति क्या हो सकती है? और उनको पढाकर परीक्षा लेने का अर्थ ही क्या निकल सकता है? ऐसी अवस्था में वे विद्यार्थी, विद्यार्थी ही न रहेंगे, बल्कि मशीन के पुर्जे जैसे बन जायेंगे । मास्टर का काम तो लड़कों को अच्छी तरह पढा देना है पढ़कर प्रश्नो का सही उत्तर लिखना लड़कों का अपना काम है । इसी प्रकार परमात्मा का काम तो जीवो को वेद द्वारा विधि-निषेध के कर्मो का ज्ञान प्राप्त करा देना है, अच्छे या बुरे कर्म करना नहीं । कर्म तो जीव स्वतन्त्रता से ही करेंगे । यदि ज्ञान के अनुकूल कर्म करेंगे, तो सुख प्राप्त करेंगे और अज्ञान के अनुकूल करेंगे तो दुःख प्राप्त करेंगे । वेद ज्ञान के अतिरिक्त प्रत्येक प्राणी के अंतकरण में भी बुरा कर्म न करने का आदेश परमात्मा की और से अवश्य होता है । उस आदेश पर प्राणी ध्यान दे या न दे, यह उसकी अपनी बात है । परमात्मा का बुरे कर्मों से रोकना इसी को कहा जाता है । जीवों के कर्म करने की स्वतन्त्रता छीन लेना रोकना नहीं ।



कमल - अच्छा, परमात्मा कर्मो का फल तत्काल क्यों नहीं देता?



विमल - प्रत्येक कर्म का उसी समय फल देना बन भी कैसे सकता है? कल्पना करो कि परमात्मा ने किसी मनुष्य के कर्म पर प्रसन्न होकर उसे तत्काल फल दिया कि यह मनुष्य एक साल तक आनन्द भोगेगा । अब दूसरे दिन उसने बुरा कर्म किया उसका परमात्मा ने फल दिया कि एक वर्ष दुःख भोगेगा । अब सोचो, यदि यह मनुष्य एक साल तक आनंद भोगता है तब तो उसने पहले कर्म का फल प्राप्त कर लिया और परमात्मा का नियम भी पूर्ण हो गया अब इस साल के बीच में चाहे वह जितने ही बुरे कर्म करे, उसका फल इस साल नहीं मिलना चाहिए । यदि इसी साल बुरे कर्म का भी फल मिलता है, तो पहले कर्म की एक साल की आनन्द भोगने की आज्ञा ईश्वर की टूट गई । जब जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है, तो कभी बुरे कर्म करेगा और कभी अच्छे कर्म करेगा ही यदि ईश्वर सबका तत्काल फल देता रहे, तो न तो बुरे कर्मों के फल की व्यवस्था बन सकेगी और न भले कर्मों के फल की व्यवस्था बन सकंगी । क्योंकि किसी भी कर्म के फल का समय पूर्ण न हो सकेगा । इसलिए परमात्मा प्रत्येक कर्म का फल अपनी नियत व्यवस्था के अनुसार ही देता है ।


कमल - यह संसार में जो लाखों योनियों हैं, क्या कर्म के फल से ही प्राप्त होती हैं?


विमल - दुनियाँ में दो प्रकार की योनियों है । 'भोग योनि' और 'उभय योनि' । यह सब जीवो को कर्मानुसार ही प्राप्त हुई है ।



कमल - 'भोग योनि' और 'उभय योनि' से क्या तात्पर्य है?



विमल - 'भोग योनि' वह है जिसमें जीव सुख दुख भोगते हैं परन्तु भविष्य के लिए कोई कर्म नहीं करते । जैसे पशु-पक्षी आदि । 'उभय योनि' मनुष्य योनि है । इसमें मनुष्य सुख दुख रूप फल भी भोगते और भविष्य के लिए अच्छे बुरे कर्म भी करते हैं ।



कमल - मनुष्य को 'उभय योनि' में क्यो माना गया है?


विमल - पशु पक्षियों को केवल खाने की चिन्ता रहती है, पदार्थों के उत्पन्न करने की नहीं । उनका जन्म परमात्मा की व्यवस्था के अनुसार केवल भोग भोगने को ही है, कमाने को नहीं । देखो! गेहूँ चना, जौ आदि अनाज सब पशु-पक्षी खाते हैं । परन्तु वे उत्पन्न नहीं कर सकते क्योंकि उनमें विचार-शक्ति नहीं है । परन्तु मनुष्य अपनी विचार शक्ति के आधार पर पशुओं से काम लेकर अनाज उत्पन्न कर सकता है । 'विचारशक्ति' होने के कारण ही इसे 'उभय योनि' कहा गया है । यह पदार्थों का भोग भी करता है और उन्हें उत्पन्न भी करता है । अपनी विचारशक्ति के सहारे मनुष्य समस्त पशु-पक्षियों को अपने काबू में कर लेता है । एक गड़रिये के आधीन हजारों भेड़े रहती हैं । एक ग्वाले के आधीन हजारों गाये रहती है । मनुष्य शेर और बड़े-२ खूँखार जानवरों को सर्कस में नाच नचा देता है । जानवरों से ही क्या अपनी विचारशक्ति के कारण पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि तत्वों से भी मनमाना काम ले लेता है । ईश्वर ने मनुष्य को पक्षियों जैसे पर नहीं दिये जो उड़ सके परन्तु इसने हवाई जहाज बना लिये । पानी में चलने के लिए मछली, कछुओं जैसे शारीरिक साधन नहीं दिये, लेकिन इसने पानी के जहाज तैयार कर लिए । गिद्ध और उकाब जैसी दूर की चीज देखने वाली  आँखे नहीं दी, परन्तु इसने दूरबीन और खुर्दबीन का निर्माण कर लिया । क्या बात है? यहीं कि मनुष्य में विचारशक्ति है । इसलिए वह 'उभय योनि' है । यह पूर्व जन्म के कर्मों का फल भोगता है और भविष्य के लिए कर्म भी करता है ।



कमल - क्या जितनी योनियों प्राप्त होती है कर्मानुसार ही होती हैं और क्या मनुष्य का जीव पशु-पक्षी आदि योनियों में भी जाता है?


विमल - हाँ, समस्त योनियाँ स्वकर्मानुसार ही प्राप्त होती है । जीव समस्त योनियों में आता जाता है । मनुष्य योनि में किये हुए कर्म ही पाप-पुण्य से सम्बन्ध रखते हैं क्योकि मै बता चुका हूँ कि  मनुष्य में ही 'विचारशक्ति' है । जब यह 'विचारशक्ति' का दुरूपयोग करता है तो पापी बनकर अनेक योनियों में भ्रमण करता है। ईश्वर अपनी न्याय-व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक जीव कों उसके सुधार के लिये ही योनियाँ प्रदान करता है, मनुष्य जो भी अच्छे बुरे कर्म करता है, उसके संस्कार सूक्ष्म शरीर पर पड़ते हैं । यहीं अच्छे बुरे संस्कार उसे उत्कृष्ट-निकृष्ट योनियों प्राप्त कराते हैं ।



कमल - 'मनुष्य योनि' कैसे प्राप्त होती है और मुक्ति कब प्राप्त होती है?

विमल - जब पाप की अपेक्षा पुण्य के संस्कार उत्कृष्ट होते हैं तब मनुष्य योनि प्राप्त होती है । और जब निष्पाप कर्मों के संस्कारों की प्रबलता होती है और ज्ञान हो जाता है, तो मरने पर मुक्ति प्राप्त हो जाती है । दूसरे शब्दों में जीव सांसारिक दुखो से छूटकर परमानन्द को प्राप्त हो जाता है ।



कमल - हाथी का जीव चींटी में कैसे समाता होगा? क्योंकि बड़े शरीर के लिए बड़ा जीव और छोटे शरीर के लिए छोटा जीव होता होगा?



विमल - जीव छोटे बडे नहीं होते, जीव समस्त प्राणियों के एक जैसे हैं । शरीर में छोटा बडापन या भिन्नता होती है । जैसे एक ही इंजन में बहुत सी मशीनें लगी हुई हैं कोई मशीन काटती है, कोई छाटती है, कोई छापती है, इंजन सबको एक ही प्रकार की शक्ति दे रहा है, परन्तु मशीनों के पुर्जा में भिन्नता होने के कारण काम भिन्न-२ प्रकार के हो रहे है । देखो जहाँ किसी प्राणी को मनुष्य की तरह होठ मिले हैं वहाँ वह दूध चूसता है, जहाँ चोंच मिली है वहीं वह ठोंगे मारता है एक खिलाडी जब मुर्गे का चोगा पहिन कर ठोंगे मार सकता है फिर जीव में भेद कहाँ रहा? शरीरों में ही तो भेद हुआ?



कमल - क्या जन्म कर्मानुसार होता है? यदि होता है तो जन्म के पहले कर्म कैंसा? जब बिना शरीर कर्म नहीं हो सकता तो जीव के संग जब शरीर नहीं था तो उसने कर्म किया कैसे ? और जन्म रुप बन्धन में फंसा कैसे?



विमल - जन्म तो अज्ञानता से होता है और योनियों कर्मानुसार प्राप्त होती हैं । जैसे पहले स्कूल में लड़के का दाखिल होना अविद्या के कारण है, और श्रेणियाँ प्राप्त करना कर्म या योग्यत्ता के आधार पर है, इसी प्रकार संसार रूपी स्कूल में जीव का आना अर्थात् प्रथम शरीर धारण करना अल्पता के कारण है और अनेक श्रेणियाँ रुपी योनियों को प्राप्त करना कर्मानुसार है । दूसरे जीव का एक ही जन्म नहीं, अनन्त बार शरीर से संयोग हुआ है और होता रहेगा । अनेक जन्मो के आत्मा पर संस्कार होते हैं । यदि कहो सृष्टि के आदि में कौन से कर्मों के संस्कार थे तो उत्तर यह है कि सृष्टि के आदि में  उससे पूर्व सृष्टि के संस्कार थे । सृष्टि प्रवाह से अनादि है, दिन और रात की तरह निरन्तर चक्र चला आता है और चलता जायेगा।


कमल - कुछ मनुष्यों का कहना है कि छोटे-२ प्राणियों में विकास होकर मनुष्य का शरीर बना है । मनुष्य सृष्टि का अन्तिम विकास है । यह कहाँ तक ठीक है?



विमल - मित्र, यह बात गलत है । यदि ऐसा होता तो मनुष्य की उपस्थिति में अन्य प्राणियों का अभाव होना चाहिए था, परन्तु देखा यह जाता है कि मनुष्य भी मौजूद हैं और अन्य छोटे-बड़े प्राणी भी मौजूद हैं । फिर कैसे माना जाए कि प्राणियों का विकास होते-२ मनुष्य का विकास हुआ है । जब अंकुर में विकास होकर वृक्ष बन जाता है फिर अंकुर कहाँ रहता है? कली में विकास होकर जब फूल बन जाता है तब कली कहाँ रहती है? दूसरी बात विचारणीय यह है कि मनुष्य के अतिरिक्त जो भी प्राणी हैं, उन सबमें सामान्य ज्ञान है परन्तु विशेष ज्ञान मनुष्य में ही पाया जाता है । मनुष्य में विशेष ज्ञान कहाँ से हुआ? विचार शक्ति से । यह 'विचारशक्ति' अन्य प्राणियों में नहीं पाई जाती । यदि पशु-पक्षी इत्यादि में विचारशक्ति होती तो मनुष्य उन पर शासन नहीं कर सकता था | देखो यह बात मानी हुई है कि अभाव से भाव कभी नहीं होता । यदि मनुष्य अन्य प्राणियों का विकसित रुप होता तो अन्य प्राणियों में विचार-शक्ति पाई जाती, परन्तु ऐसा नहीं है । विकासवाद कहता है कि बन्दर से मनुष्य का विकास हुआ है । यदि ऐसा होता तो मनुष्य का बच्चा पानी में डाल देने से डूब नहीं सकता था । जब बन्दर से मनुष्य बना है तो बन्दर की तमाम शक्तियाँ मनुष्य में विकसित होनी चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं है । बन्दर के बच्चे को पानी में डाल दो तो फौरन तैर कर निकल जायगा । परन्तु मनुष्य का बच्चा तैरना न जानने के कारण डूब जायेगा । इससे सिद्ध है कि मनुष्य,पशु-पक्षी आदि जितनी भी योनियाँ है । सबका निर्माण अपनी न्याय-व्यवस्था से कर्मानुसार भगवान् करता है ।



कमल - क्या कोई भूत योनि भी है? लोग भूत प्रेतों की बड़ी कहानियाँ सुनाते हैं । भोपे, सयाने और मौलवी गण्डे ताबीज देते हैं, झाड़ा फूंकी करते हैं तथा भूत-प्रेत्तों को भी उतारते हैं । क्या यह ठीक है?



विमल - भूत प्रेत की कोई सत्ता नहीं है । लोग जो कहानियाँ सुनाते है सब गढ़ी हुई होती हैं । भूत भविष्य और वर्तमान समय-भेद के नाम है। भूत का अर्थ गुजरा हुआ या बीता हुआ है । जब कोई मनुष्य मर जाता है, तो उसकी सत्ता वर्तमान नहीं रहती "भूत" में गिनी जाती है और प्रेत कुछ नहीं है । जितने भी लोग भूत प्रेत देखने की बाते कहते हैं वे अंधेरे में देखने को कहते हैं । जितनी भी मिथ्या बातें हैं सब अंधेरे में ही रहती हैं । संसार की सूक्ष्म और स्थूल चीजें इन्दियों तथा यंत्रो द्वारा हर समय देखी जा सकती हैं । यदि भूत प्रेत कोई योनि होती तो वह भी अवश्य दिखाई देती परन्तु ऐसा नहीं है । जिनके मन में भ्रम और भय होता है, या जिनके मन पर भूत-प्रेतों के संस्कार पड़े होते हैं वह उनको ही दिखाई देते है, अन्यो को नहीं । मनोविज्ञान का सिद्धान्त है- मन पर जैसे संस्कार होंगे, भयभीत होने पर या मानसिक रोगों की अवस्था में वैसा ही चित्र दिखाई देने लगेगा । सोचने की चीज है, जब मनुष्य मर जाता है तो शरीर पंच भूतों में मिल जाता है और जीव कर्मानुसार शरीर धारण कर लेता है । फिर कैसा भूत और कैसा प्रेत? यदि कहा जाये भूत-प्रेत जीवात्मा या सूक्ष्म शरीर का नाम है तो जीवात्मा बिना स्थूल शरीर के न तो दिखाई दे सकता है, और न बिना शरीर के सम्बन्धित कार्य कर सकता है । यहीं सूक्ष्म शरीर का हाल है। रही गण्डे, ताबीज, झाडा, फूंकी और भूत-प्रेत उतारने की बात सो यह भी कोरा ढोंग है । गण्डे, ताबीज, झाड़ा, फूंकी करने से रोग दूर हो जाते या बच्चे जीवित हो जाते तो गण्डे ताबीज और झाडा फूंकी करने वालो के बच्चे न तो कभी रोगी होते और न कभी मरते । परन्तु देखा यह जाता है उनके बच्चे भी मरते है, और वे स्वयं भी काल के ग्रास हो जाते हैं । यदि झाडा-फूंकी से काम चल जाता, तो डाक्टर और वैद्यो की जरुरत ही क्या थी, और क्या औषधालय और अस्पतालों की जरुरत थी? किसी के सिर पर भूत-प्रेत या देवी-देवता आने की कलई तब खुल जाती है, जब कोई कठिन प्रश्न उससे किया जाता है । उनकी परीक्षा करने वालो को चाहिए कि यदि हिन्दू देवता किसी के सिर पर आया हो तो उससे वेद मन्त्र का अर्थ पूछना चाहिए और इस्लामी देवता सैयद, पर किसी पर आया हो, तो कुरान को आयत पढ़वानी चाहिए । ऐसा करने से उसके सारे ढोंग और बहाने प्रकट हो जायेंगे। प्राय: बहुत सी बाते ऐसी भी होती हैं जिन्हें चालाक आदमी कर दिखाते हैं । जब लोगों की समझ में वे बाते नहीं जाती, तो  वे समझते हैं कि उसने भूत -प्रेत वश में किया हुआ है । पर वास्तव में भूत-प्रेत की कोई सत्ता नहीं है । यह सिर्फ वहम है, जो अज्ञानी अन्धविश्वासी मनुष्यों को सताता है । प्रत्येक मनुष्य को विश्वास रखना चाहिए कि जो 'भोग' में है वह अवश्य भोगना पडेगा । उसको कोई नहीं टाल सकता । न्याय करने वाला परमात्मा सर्वत्र मौजूद है । संसार में किसी दूसरे की शक्ति नहीं है कि बिना कर्मो या बिना पूर्व जन्म के संस्कार से ईश्वर की न्याय-व्यवस्था के विरुद्ध किसी को अच्छा या बुरा फल दे सके ।

कमल - अच्छा, भूत-प्रेत योनि न सही, लेकिन सुख़-दुःख ग्रहों के कारण तो होता ही है । नव ग्रहों का फल तो भोगना ही पड़ता है । ज्योतिष की बात तो झूठी नहीं हो सकती। ज्योतिष विद्या तो महीनों वर्षों आगे आने वाले सूर्यं-ग्रहण और चन्द्र-ग्रहण आदि का हाल सच्चा बता देती है ।



विमल - सुख दुख ग्रहों के कारण नहीं होता, अपने-अपने कर्म फलों के कारण होता है । जितने भी ग्रह हैं वे न किसी को दुख देते हैं और न किसी को सुख देते हैं । समस्त ग्रह, पृथ्वी पर अपना प्रभाव तो अवश्य डालते हैं, परन्तु उस प्रभाव से जो सुख-दु:ख मिलता है या वस्तुओं में जो परिवर्तन होता है, वह उन वस्तुओं की अपनी ही अवस्था के कारण होता है । जैसे सूर्य ग्रह है उसका प्रकाश सर्वत्र हो रहा है । अब एक वृक्ष पृथ्वी में लगा हुआ है पास में ही दूसरा कटा हुआ पड़ा है । सूर्य की किरणे दोनो वृक्षों पर पड़ रही है । परन्तु जो कटा हुआ पड़ा वह सूख रहा है और जो जमीन में लगा हुआ है वह बढ़ रहा है । जब किरणे दोनो वृक्षों पर समान रुप से पड़ रही है तो एक वृक्ष में क्षीणता क्यों है, और दूसरे में वृद्धि क्यो है? वही सूर्य का प्रकाश पत्थर पर पड़ रहा है वही बर्फ पर पड़ रहा है । परन्तु पत्थर में सख्ती आ रही है बर्फ घुल रही है । उसी सूर्य के प्रकाश में स्वस्थ नेत्रों वाला व्यक्ति. सुन्दर-२ दृष्यों को देखकर प्रसन्न होता है परन्तु जिसकी आँख दुखनी आई हुई है उसे वही सूर्य का प्रकाश दुखदायी प्रतीत हो रहा है अब बताओ इसमें सूरज ने कुछ कर दिया है? सूरज का क्या दोष है? जिस चीज की अवस्था है, उसी के अनुसार उसमें परिवर्तन और हानि लाभ हो रहाहै । देखो! ज्योतिष के दो अंग माने जाते है- गणित और फलित । जहाँ तक गणित का सम्बन्ध है वह सच्चा है और फलित अनुमान की चीज होने के कारण झूठा है । सूर्य ग्रहण या चन्द गणित से सम्बन्ध रखते हैं । इसलिए महीनों वर्षों पहले बताये जा सकते हैं । सृष्टि के आदि से लेकर अन्त तक सूर्य, चन्द्र आदि  अपना-२ कार्य नियम पूर्वक करते हैं । इसलिए उनका गणित बना हुआ है । ज्योतिष के विद्वान ग्रहों गति का ज्ञान रखते है । उन्हें स्पष्ट पता चल जाता है कि अमुक समय चन्द्रमा की छाया सूर्य पर या पृथ्वी की छाया चन्द्र पर पडेगी। अत: अमुक समय में ग्रहण पडेगा । जिस चीज में भी नियमपूर्वक गति है, उसके परिणाम का पता गणित से तत्काल हो जाता है । जैसी घड़ी में नियम पूर्वक गति है । बच्चा भी जिसे घड़ी देखना आता है फ़ौरन कह देगा कि बारह बजने में अभी इतनी देर है | एक बजने में अभी इतनी मिनट बाकी हैं । घडी की सुइयाँ चाहे किन्ही अंकों पर हों परन्तु प्रत्येक मनुष्य कह देगा कि बारह तभी बजेंगे, जब दोनों सुइयाँ बारह के  अंक पर आ जायेगी । इसका पता क्यों चल जाता है? इसलिए कि घडी में नियम पूर्वक गति हो रही है । वास्तव में ज्योतिष गणित की विद्या है, लोगों ने उसमें फलित को जोड़कर बदनाम कर दिया है।



कमल - ज्योतिषी जी जन्म पत्र लिखते हैं, जन्म कुण्डली निकालकर नवग्रहों का हाल सुनाते हैं । जिस पर जो ग्रह खडे होते हैं फौरन बता देते हैं । मैंने कई बार देखा है, किसी पर शनि की ढेया, किसी पर साढे साती, किसी पर मारकेश की दशा, किसी पर राहु केतू का कोप, कहीं पर दिशा शूल, कहीं योगिनी चक्र आदि का हाल खूब बताते हैं। यहीं तक नहीं, तेजी, मन्दी, हानि-लाभ, गढ़ा हुआ धन, रोजगार, हार जीत, लाटरी, मुकदमा तथा भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों कालों की बात बताते हैं । क्या यह सब बाते सत्य नहीं हैं?

विमल - मित्र, तुम निश्चय पूर्वक जानो, यह सारी की सारी भ्रम में डालने की बाते हैं । लोगों ने कमाने खाने का धूर्तता पूर्ण ढंग निकाला हुआ है और कुछ नहीं । भगवान की व्यवस्था के अनुसार जो भोग में है वह कभी नहीं टल सकता । मैं पहले ही तुझसे कह चुका हूँ कि ग्रह स्वयं किसी को सुख-दुख नहीं देते, क्योंकि वे जड़ हैं । सुख-दुख तो कर्मों के कारण मिलता है । देखो! अन्य देशों की अपेक्षा भारत में अधिक ज्योतिषी है । यहीं प्रत्येक कार्यं में ग्रह और नक्षत्र देखे जाते हैं, परन्तु फिर भी भारत सर्वाधिक दीन-हीन और दु:खी है । सब देशों से अधिक बेकारी और नंगे-भूखे भारत में ही मिलेंगे । यह ढाई करोड़ जो विधवाए भारत में हैं, क्या संसार के किसी और देश ने भी हैं । इनके विवाह पोथी पत्र देखकर ही तो किये गये थे? राशि, वर्ग, लग्न आदि सब ही कुछ तो पण्डित ने मिलवाये थे । फिर इतनी  विधवाए कैंसे बन गई । ब्रह्मा के पुत्र वशिष्ठ ने  मुहूर्त देख कर लग्न रखा कि प्रात:काल रामचन्द्र की राजगददी होंगी। परन्तु कर्मो की गति अर्थात भोग ऐसा प्रबल निकला कि प्रात:काल होते ही राम वनवासी हो जाते हैं, दशरथ प्राण छोड़ते है । रानियाँ विधवायें होती हैं सीता चुराई जाती है! सूरदास ने इसीलिए कहा है-

करम गति टारे नाहिं टरै।
गुरु वशिष्ठ से पण्डित ज्ञानी रुचि-२ लगन धरै ।
सीता हरन, मरन दशरथ को विपत पै विपत परै ।।

इसी प्रकार तुलसीदास ने कहा है-

लग्न मुहूरत योग ग्रह 'तुलसी' गिनत न काहि।
राम भये जिहि दाहिने सबहि दाहिने ताहि।


इसी प्रकार ग्रहों के चढ़ने उतरने को बात भी बडी विचित्र है । देखो! जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं, उसकी परिधि २५००० मील की है । क्या पृथ्वी से १३ लाख गुणा और बोझ में ३३३४३२ गुणा बडा है । यदि हम सौ मील प्रति घण्टे की चाल से चलने वाले हवाई जहाज पर अहर्निशि चलें तो पृथ्वी से सूर्यं तक पहुँचने में १०५ वर्ष लगेंगे । बहुत से ग्रह ऐसे हैं, जिनका प्रकाश पृथ्वी तक आने में लाखों करोडों वर्ष लग जाते हैं ; अब सोचो ऐसे ग्रहों का किसी पर चढ़ना कैंसे सम्भव हो सकता हैं? और फिर मजे की बात यह है कि ग्रह चढे हुए तो लल्ला जी पर होते हैं और मालूम पण्डित जी को होते हैं । किसी मनुष्य पर चींटी चढ़ जाती हैं तो उसे मालूम पड़ जाती है, सांप बिच्छू चढ़ जाता है, तो मालूम पड़ जाता है । यदि हाथी, घोडा चढ़ जाता है, तो मालूम ही नहीं होता बल्कि कचूमर निकल जाता है । परन्तु इन जानवरों से असंख्यो गुने बडे ग्रह ऊपर चढे हुए मालूम ही नहीं देते, यह कैसे आश्चर्य की बात है! वास्तव में यह कोरा ठगों का जाल है, इसने कोई सार नहीं! । जो कुछ भोग और भाग्य में होता है, वही मिलता है| दिशा शूल आदि  भी ढोंग ही है । आज रेल और मोटरों ने सारा दिशाशूल तोड़ दिया । कल्पना करो, किसी का मुकदमा कलकत्ता में चल रहा है । जिस दिन की तारीख है, पण्डित ने कहा, आज न जाओ दिशाशूल है । यदि वह व्यक्ति उस रोज कचहरी में उपस्थित नहीं होता, तो दिशाशूल जाकर क्या उसकी पैरवी करेगा? हर्गिज नहीं । एक सेठ का बम्बई से तार आया फौरन चले आओ नहीं तो कई लाख का घाटा हो जायेगा । सेठ चलने को तैयार हुए, पुरोहित ने कहा आज का दिन ठीक नहीं दूसरे दिन घर से निकले तो बिल्ली रास्ता काट गई । तीसरे दिन मोटर तक पहुँचे और चढ़ने ही बाले थे कि एक मनुष्य छींक बैठा । चौथे दिन घर से चलने लगे, कि बम्बई से तार आ गया कि आपके न आने से २० लाख रुपये का घाटा हो गया है । देखा मित्र बहमों का कैसा भयंकर परिणाम निकला! जो ज्योतिषी गढ़ा हुआ धन और गुप्त बातों के बताने की बात कहते हैं, उसको कोरा ठग समझना चाहिए । यदि वे गढ़े हुए धन को बता सकते हैं तो पृथ्वी में अरबों रुपयों की सम्पति दबी है, स्वयं ही क्यों न उखाड़ लिया करें । जियोलोजी अर्थात् भूगर्भ विद्या के विद्वानों को क्यो माथा पच्ची करनी पड़े । यदि इन ज्योतिषियों को ही पृथ्वी के भीतर की सारी बातें मालूम हो जाया करें तो संसार के देशों की सरकारें जो अरबों रुपया इस विभाग में खर्च करती हैं, क्यों नहीं थोडे से रुपयों में ज्योतिषियों से ही काम चला लिया करें? अतएव किसी व्यक्ति को इन बातों में नहीं पाना चाहिए । अपने कर्म-फल और ईश्वर की न्यायकारिता में अटल विश्वास रखकर बुद्धिपूर्वक शुभ कर्म करना चाहिए । यही मनुष्यता है । 

कमल - मित्र, आप यह बताओं, कि श्राद्ध करना चाहिए या नहीं?

विमल - इस पर कल विचार होगा ।


| ओ३म् |