Friday, September 6, 2013

वैदिक संध्या (Vedic Sandhya)



वैदिक संध्या
Vedic Sandhya

हमें प्रात: व सायं मन, वचन और कर्म से पवित्र होकर संध्योपासना करनी चाहिए | प्रात: काल पूर्व की ओर मुख करके और सायं काल पश्चिम की ओर मुख करके संध्या करनी चाहिए |


|| गायत्री मन्त्र ||

ओ३म् भूर्भुव: स्व: | तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि |
धियो यो न: प्रचोदयात् ||
यजुर्वेद ३६.३
 
तूने हमें उत्पन्न किया, पालन कर रहा है तू |
तुझ से ही पाते प्राण हम, दुखियों के कष्ट हरता है तू ||
तेरा महान तेज है, छाया हुआ सभी स्थान |
सृष्टि की वस्तु वस्तु में, तू हो रहा है विद्यमान ||
तेरा ही धरते ध्यान हम, मांगते तेरी दया |
ईश्वर हमारी बुद्धि को, श्रेष्ठ मार्ग पर चला || 



|| अथ आचमन मन्त्र ||

निम्न मन्त्र से दायें हाथ में जल ले कर तीन बार आचमन करें |

ओ३म्‌ शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये। शंयोरभिस्रवन्तु नः॥
यजु. ३६.१२

सर्वप्रकाशक और सर्वव्यापक ईश्वर इच्छित फल और आनंद प्राप्ति के लिए हमारे लिए कल्याणकारी हो और हम पर सुख की वृष्टि करे|

(तीन प्रकार की शांति के लिए आचमन भी तीन बार किया जाता है| पहला आचमन अध्यात्मिक शांति के लिए| दूसरा आधि-भौतिक शांति के लिए और तीसरा आचमन आधि-दैविक शांति के लिए)







|| अथ इन्द्रिय स्पर्श ||

अब बायें हाथ में जल ले कर दायें हाथ की अनामिका व मध्यमा उंगलियों से इन्द्रिय स्पर्श करे | ऐसा करते समय ईश्वर से इन्द्रियों में बल व ओज की प्रार्थना करनी चाहिए |

ओ३म्‌ वाक् वाक्, ओ३म्‌ प्राण: प्राण:, ओ३म्‌ चक्षुश्चक्षु:, ओ३म्‌ श्रोत्रम् श्रोत्रम्, ओ३म्‌ नाभि:, ओ३म्‌ हृदयम, ओ३म्‌ कंठ:, ओ३म्‌ शिर:, ओ३म्‌ बाहुभ्यां यशोबलं, ओ३म्‌ करतल करप्रष्ठे |

हे ईश्वर! मेरी वाणी, प्राण, आंख, कान, नाभि, हृदय, कंठ, शिर, बाहु और हाथ के ऊपर और नीचे के भाग (अर्थात) सभी इन्द्रिया बलवान और यश्वाले हो|






|| मार्जन मन्त्र ||

ओ३म्‌ भू: पुनातु शिरसि, ओ३म्‌ भुव: पुनातु नेत्रयो:, ओ३म्‌ स्व: पुनातु कण्ठे, ओ३म्‌ मह: पुनातु हृदये, ओ३म्‌ जन: पुनातु नाभ्यां, ओ३म्‌ तप: पुनातु पादयो:, ओ३म्‌ सत्यम पुनातु पुन: शिरसि, ओ३म्‌ खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र | 

हे ईश्वर! आप मेरे शिर, नेत्र, कंठ, हृदय, नाभि, पैर अर्थात समस्त शरीर को पवित्र करे |






|| अथ प्राणायाम मन्त्र ||

इस मन्त्र से तीन बार प्राणायाम करे |

ओ३म्‌ भू: | ओ३म्‌ भुव: | ओ३म्‌ स्व: | ओ३म्‌ मह: | ओ३म्‌ जन: | ओ३म्‌ तप: | ओ३म्‌ सत्यम |

प्राणायाम विधि :

१. पद्मासन या किसी अन्य आसन से, जिससे सुखपूर्वक उस समय तक बिना आसन बदले बैठ सके, जितनी देर प्राणायाम करना इष्ट हो, इस प्रकार बैठ जाये कि छाती, गला और मस्तक तीनो एक सीध में रहे |
२. नाक से धीरे धीरे श्वास बाहर निकले (रेचक) और उसे बाहर ही रोक दे (बाह्य कुम्भक) | ऐसा करते समय मूलेंद्रिय (गुदा इन्द्रिय) को ऊपर की ओर संकुचित करना चाहिए | यदि प्रारम्भ में मूलेंद्रिय का संकोच न हो सके तो कोई चिंता नहीं करनी चाहिए |
३. जब और अधिक देर बिना श्वास लिए न रह सके तो धीरे धीरे श्वास भीतर खीचे (पूरक) और उसे भीतर ही रोक दे (आभ्यन्तरकुम्भक)
४. जब और अधिक समय भीतर श्वास न रोक सके तो फिर से स० (२) के अनुसार रेचक करे|
५. प्रत्येक क्रिया के साथ प्राणायाम मन्त्र का मानसिक जप करे|







|| अथ अघमर्षण मंत्रा: ||

ओ३म्‌ ऋतंच सत्यंचा भीद्धात्तपसोध्य्जायत |
ततो रात्र्यजायत तत: समुद्रो अर्णव: ||

ओ३म्‌ समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत |
अहो रात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी ||

ओ३म्‌  सूर्याचन्द्र्मसौ धाता यथा पूर्वमकल्पयत् |
दिवंच प्रथिवीन्चान्तरिक्षमथो स्व: ||

हे ईश्वर, इस संसार में जितने भी ऋतु व सत्य पदार्थ है सब आपके बनाए हुए है | आप ही सूर्य चन्द्र आदि नक्षत्रो को अनादि काल से बना कर धारण कर रहे है |







|| अथ आचमन मन्त्र ||

इस मन्त्र से पुन: तीन बार आचमन करें |

ओ३म्‌ शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये । शंयोरभिस्रवन्तु नः॥
यजु. ३६.१२

सर्वप्रकाशक और सर्वव्यापक ईश्वर इच्छित फल और आनंद प्राप्ति के लिए हमारे लिए कल्याणकारी हो और हम पर सुख की वृष्टि करे|








|| अथ मनसा परिक्रमा मन्त्र ||

ओ३म्‌ प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषवः|
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु|
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥
अथर्ववेद ३/२७/१

ओ३म्‌ दक्षिणा दिगिन्द्रोऽधिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषवः|
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु|
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः.
अथर्ववेद ३/२७/२

ओ३म्‌ प्रतीची दिग्वरुणोऽधिपतिः पृदाकू रक्षितान्नमिषवः.
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु.
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः.
अथर्ववेद ३/२७/३

ओ३म्‌ उदीची दिक् सोमोऽधिपतिः स्वजो रक्षिताऽशनिरिषवः.
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु.
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः.
अथर्ववेद ३/२७/४

ओ३म्‌ ध्रुवा दिग्विष्णुरधिपतिः कल्माषग्रीवो रक्षिता वीरुध इषवः.
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु.
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः.
अथर्ववेद ३/२७/५

ओ३म्‌ ऊर्ध्वा दिग्बृहस्पतिरधिपतिः श्वित्रो रक्षिता वर्षमिषवः.
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु.
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः.
अथर्ववेद ३ /२७/ ६

हे पावन परमेश्वर ! आप प्राची, प्रतीची आदि समस्त दिशाओं में विध्यमान हो कर हम सब की रक्षा करते है | हम आपके रक्षक स्वरुप को बार बार प्रणाम करते है तथा द्वेष भाव को आपकी न्याय व्यवस्था में समर्पित करते है |








 || उपस्थान मंत्र ||

ओ३म्‌ उद्वयन्तमसस्परि स्वः पश्यन्त उत्तरम् |
देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ||
यजुर्वेद ३५/१४
                                  
ओ३म्‌ उदुत्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः |
दृशे विश्वाय सूर्यम् ||
यजुर्वेद ३३/३१

ओ३म्‌ चित्रं देवानामुद्गादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः |
आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष~म् सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च स्वाहा ||
यजुर्वेद ७/४२

ओ३म्‌ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत् |
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतम् शृणुयाम शरदः
शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं
भूयश्च शरदः शतात् ||
यजुर्वेद ३६/१४

हे पिता ! आपकी दया से हम अज्ञान अन्धकार से ज्ञान व प्रकाश की ओर बढ़े तथा समस्त इन्द्रियों से भद्र आचरण करते हुए तथा आपका स्मरण करते हुए सौ वर्ष तक सुखपूर्वक जीवन यापन करे |







|| गायत्री मंत्र ||

ओ३म् भूर्भुव: स्व: | तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि | धियो यो न: प्रचोदयात् ||
यजुर्वेद, ३६/३, ऋग्वेद, ३/६२/१०

हे प्राणस्वरूप, दुःख विनाशक, स्वयं सुखस्वरूप और सुखो को देने वाले प्रभु हम आपके वर्णीय तेज स्वरुप का ध्यान करते है | आप कृपया करके हमारी बुद्धियो को सन्मार्ग में प्रेरित कीजिये |







|| अथ समर्पणम् ||

हे ईश्वर दयानिधे ! भवत्कृपयानेन जपोपासनादिकर्मणा
धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः॥

हे दयानिधान ! हम आपकी उपासना करते है | आप कृपया करके हमें शीघ्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कराईये | 







|| अथ नमस्कार मन्त्र ||

ओ३म् नमः शम्भवाय च मयोभवाय च |
नमः शंकराय च मयस्कराय च |
नमः शिवाय च शिवतराय च |
यजुर्वेद ६/ ४१

हे सुख़ स्वरुप व सुख़ प्रदाता, कल्याणकारक, मंगलस्वरूप, मोक्ष को देने वाले पूज्य प्रभु, हम पुन: पुन: आपके शिव रूप को प्रणाम करते है |  







ईश्वर स्तुति प्रार्थना उपासना मंत्र


ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव| यद भद्रं तन्न आ सुव || यजुर्वेद ३०.३

तू सर्वेश सकल सुखदाता शुध्दस्वरूप विधाता है|
उसके कष्ट नष्ट हो जाते जो तेरे ढिंग आता है||
सारे दुर्गुण दुर्व्यसनो से हमको नाथ बचा लीजिये|
मंगलमय गुणकर्म पदार्थ प्रेम सिन्धु हमको दीजिए ||


ओ३म् हिरण्यगर्भ: समवर्त्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत | स दाधार प्रथिवीं ध्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम || यजुर्वेद १३.४

तू ही स्वयं प्रकाश सुचेतन सुखस्वरूप शुभ त्राता है|
सूर्य चन्द्र लोकादि को तू रचता और टिकाता है||
पहले था अब भी तू ही है घट घट मे व्यापक स्वामी|
योग भक्ति तप द्वारा तुझको पावें हम अन्तर्यामी ||       


ओ३म् य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवा: । यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्यु: कस्मै देवाय हविषा विधेम || यजुर्वेद २५.१३

तू ही आत्म ज्ञान बल दाता सुयश विज्ञ जन गाते है |
तेरी चरण, शरण मे आकर भव सागर तर जाते है ||
तुझको ही जपना जीवन है मरण तुझे बिसराने मे |
मेरी सारी शक्ति लगे प्रभू तुझसे लगन लगाने में ||     


ओ३म् य: प्राणतो निमिषतो महित्वैक इन्द्राजा जगतो बभूव। य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पद: कस्मै देवाय हविषा विधेम ||  यजुर्वेद २३.३

तुने अपने अनुपम माया से जग मे ज्योति जगायी है |
मनुज और पशुओ को रच कर निज महिमा प्रकटाई है ||
अपने हिय सिंहासन पर श्रद्धा से तुझे बिठाते है |
भक्ति भाव से भेंटे ले के तब चरणो मे आते है || 

ओ३म् येन द्यौरुग्रा पृथिवी च द्रढा येन स्व: स्तभितं येन नाक: । यो अन्तरिक्षे रजसो विमान: कस्मै देवाय हविषा विधेम || यजुर्वेद ३२.६

तारे रवि चन्द्रादि रच कर निज प्रकाश चमकाया है |
धरणी को धारण कर तूने कौशल अलख लखाया है ||
तू ही विश्व विधाता पोषक, तेरा ही हम ध्यान धरे |
शुद्ध भाव से भगवन तेरे भजनाम्रत का पान करे ||


ओ३म् प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव । यत्कामास्ते जुहुमस्तनो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम् || ऋ्गवेद १०.१२१.१०

तुझसे भिन्न न कोई जग मे, सबमे तू ही समाया है |
जङ चेतन सब तेरी रचना, तुझमे आश्रय पाया है ||
हे सर्वोपरि विभो! विश्व का तूने साज सजाया है |
हेतु रहित अनुराग दीजिए यही भक्त को भाया है ||  

ओ३म् स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा । यत्र देवा अमृतमानशाना स्तृतीये घामन्नध्यैरयन्त || यजुर्वेद ३२.१०

तू गुरु है प्रदेश ऋतु है, पाप पुण्य फल दाता है |
तू ही सखा मम बंधु तू ही तुझसे ही सब नाता है ||
भक्तो को इस भव बन्धन से तू ही मुक्त कराता है |
तू है अज अद्वैत महाप्रभु सर्वकाल का ज्ञाता है ||

ओ३म् अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान । युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेँम || यजुर्वेद ४०.१६

तू है स्वयं प्रकाशरुप प्रभु सबका स्रजनहार तू ही |
रचना नित दिन रटे तुम्ही को मन मे बसना सदा तूही ||
अघ अनर्थ से हमें बचाते रहना हर दम दयानिधान |
अपने भक्त जनो को भगवन दीजिए यही विशद वरदान ||     







|| मंगल कामना ||


सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्व सन्तु निरामय: |
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कशिच्द् दु:ख्भाग्भावेत् ||

हे नाथ ! सब सुखी हो, कोई न हो दुखारी |
सब हो निरोग भगवन्, धन्य-धान्य के भण्डारी ||
सब भद्रभाव देखे, सन्मार्ग के पथी हो |
दुखिया न कोई होवे, सृष्टि में प्राणधारी ||








|| वैदिक प्रार्थना ||


पूज्यनीय प्रभो! हमारे भाव उज्ज्वल कीजिए |
छोङ देवें छल कपट को, मानसिक बल दीजिए ||||

वेद की गायें ऋचायें, सत्य को धारण करें |
हर्ष में हों मग्न सारे शोक-सागर से तरें ||||

अश्वमेधादिक रचायें यज्य पर-उपकार को |
धर्म-मर्यादा चलाकर, लाभ दें संसार को ||||

नित्य श्रद्धा-भक्ति से यज्यादि हम करते रहें |
रोग पीङित विश्व के सन्ताप सब हरते रहें ||||

भावना मिट जाय मन से पाप अत्यचार की |
कामनायें पूर्ण होवें यज्य से नर नारि की ||||

लाभकारी हो हवन हर प्राणधारी के लिये |
वायु-जल सर्वत्र हों शुभ गन्ध को धरण किये ||||

स्वार्थ-भाव मिटे हमारा प्रेम-पथ विस्तार हो |
'इदन्न मम' का सार्थक प्रत्येक मे व्यवहार हो ||||

हाथ जोङ झुकायें मस्तक वन्दना हम कर रहे |
'नाथ' करुणा-रूप करुणा आपकी सब पर रहे ||||








|| संगठन सूक्त ||


ओ३म्‌ सं समिधु वसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ |
इडस्पदे समिध्यसे स नो वसुन्या भर ||

हे प्रभो ! तुम शक्तिशाली हो बनाते सृष्टि को ||
वेद सब गाते तुम्हें हैं कीजिए धन वृष्टि को ||

ओ३म सगंच्छध्वं सं वदध्वम् सं वो मनांसि जानतामं |
देवा भागं यथा पूर्वे सं जानानां उपासते ||

प्रेम से मिल कर चलो बोलो सभी ज्ञानी बनो |
पूर्वजों की भांति तुम कर्त्तव्य के मानी बनो ||

समानो मन्त्र:समिति समानी समानं मन: सह चित्तमेषाम् |
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये व: समानेन वो हविषा जुहोमि ||

हों विचार समान सब के चित्त मन सब एक हों |
ज्ञान देता हूँ बराबर भोग्य पा सब नेक हो ||

ओ३म समानी व आकूति: समाना हृदयानी व: |
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति ||

हों सभी के दिल तथा संकल्प अविरोधी सदा |
मन भरे हो प्रेम से जिससे बढे सुख सम्पदा ||









|| वैदिक राष्ट्रीय प्रार्थना ||


आ ब्रह्मन्‌ ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायताम् |
आराष्ट्रे राजन्यः शूरऽइषव्योऽतिव्याधी महारथो जायताम् |
दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः |
सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायताम् |
निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नऽओषधयः |
पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम्‌॥

-यजु. २२.२२


ब्रह्मन ! स्वराष्ट्र में हो द्विज ब्रह्म तेजधारी |
क्षत्रिय महारथी हों अरि-दल विनाशकारी ||

होवें दुधारू गोवें पशु अश्व आशुवाही |
आधार राष्ट्र की हों, नारी सुभग सदा ही ||

बलवान सभ्य योध्दा यजमान पुत्र होवें |
इच्छानुसार बरसे, पर्जन्य ताप धोवें ||

फल-फूल से लदी हों ओषध अमोघ सारी |
हो योगक्षेम-कारी, स्वाधीनता हमारी ||









|| अथ शांति मन्त्र ||


ओ३म् द्यौ शान्तिरन्तरिक्षं शांतिः पृथ्वी शान्तिरापः शांतिः रोषधयः शांतिः |
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवः शांतिर्ब्रह्मशांति सर्व शांतिः शान्तिरेव शांतिः सा मा शान्तिरेधि
ओ३म् शांतिः शांतिः शांतिः||


शांति कीजिये प्रभु त्रिभुवन में |
जल में, थल में और गगन में, अंतरिक्ष में और अग्नि, पवन में |

औषध वनस्पति वन उपवन में, सकल विश्व में जड़ चेतन में |
शांति कीजिये प्रभु त्रिभुवन में |

ब्राह्मण के उपदेश वचन में, क्षत्रिय के द्वारा हो रण में |
वैश्य जनों के होवे धन में और शुद्र के हो चरणन में |
शांति कीजिये प्रभु त्रिभुवन में |

शांति राष्ट्र निर्माण सृजन में, नगर-ग्राम में और भवन में |
जीव मात्र के तन में मन में और जगती के हो कण कण में |

शांति कीजिये प्रभु त्रिभुवन में |
शांति कीजिये प्रभु त्रिभुवन में |

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