Monday, June 23, 2014

क्या ईश्वर सृष्टिकर्ता है?

| ओ३म् |

वैदिक सिद्धांतो पर आधारित

"दो मित्रो की बातें" - पंडित सिद्ध गोपाल कविरत्न



क्या ईश्वर सृष्टिकर्ता है?




कमल - तो मित्र, कल के प्रश्न का उत्तर दो?


विमल - तुम्हारा कल का प्रश्न था कि जब परमात्मा के शरीर ही नहीं, तो संसार कैसे बना सकता है, क्योकि बिना शरीर के न तो क्रिया हो सकती है और न कार्य हो सकता है? मित्र ! यह भी तुम्हारी भूल है । चेतन पदार्थ जहाँ पर भी उपस्थित होगा, वहीं वह क्रिया कर सकेगा और क्रिया दे सकेगा । जहाँ पर उपस्थित नहीं होगा वहाँ पर शरीर आदि साधनों की आवश्यकता पडेगी । देखो, मैंने यह पुस्तक उठाई । बताओ किससे उठाई?


कमल - हाथ से ।


विमल - अगर हाथ न होता तो मैं पुस्तक को उठा सकता था या नहीं?


कमल - नहीं ।


विमल - अच्छा, हाथ ने तो किताब को उठाया, अब बताओं हाथ को किसने उठाया।


कमल - हाथ को अपनी शक्ति ने उठाया |


विमल - और जो, मैं अपने सारे शरीर को हिला रहा हूँ, बताओ किससे हिला रहा हूँ?


कमल - अपनी शक्ति से ।


विमल - तुम तो कहते थे कि बिना शरीर के कोई क्रिया नहीं हो सकती । फिर बिना शरीर के इस शरीर को क्रिया कैसे मिल गई? पता चला चेतन और उसकी शक्ति जहाँ जहाँ मौजूद है वहाँ वहाँ उसे शरीर की आवश्यकता ही नहीं । जीवात्मा शरीर के भीतर होने के कारण सारे शरीर को क्रिया देता है, और शरीर से बाहर के पदार्थों को शरीर से क्रिया देता है क्योकि वहाँ वह उपस्थित नहीं है । परमात्मा बाहर भीतर सर्वत्र विद्यमान है, इसलिए उसे शरीर की जरुरत नहीं पड़ती । वह सारे संसार में व्यापक होने के कारण सारे संसार को क्रिया देता है।



कमल - मैं देखता हूँ शक्ल वाला ही शक्ल वाली चीज को बनाता है, जैसे हलवाई, सुनार आदि । निराकार परमात्मा जगत् को कैसे बना सकता है?



विमल - जितने शक्ल वाले कर्ता हैं, वे अपने से बाहर की चीजों को बनाते हैं, अपने भीतर की चीजो को नहीं । बाहर की चीजों के लिए हाथ पैर की जरुरत है, भीतर के लिए नहीं । परमात्मा से कोई चीज बाहर नहीं, इसलिए उसे शरीर की आवश्यकता नहीं । हलवाई अपने से बाहर की चीजें बनाता है, यदि उन्हें अपने शरीर के भीतर ही बनाने लगे तो उसे खायेगा कौन? और फिर उसे हाथ, पैरो की आवश्यकता ही क्या है? शरीर के भीतर रस, रक्त, माँस, हड्डी आदि पदार्थ बिना हाथ पैरों के ही बन रहे है । एक बात पर विचार और करो कि इन्द्रियाँ बाहर की चीजें बनाती हैं, और बाहर की चीज ही देखती हैं अगर भीतर की चीजें देखने लग जायें तो जीना भारी हो जाये । भीतर की चीजें सूँघने लगें तो क्या हाल हो? और भीतर का मल, मूत्र, खून, माँस देखने लगे, तो घृणा से व्याकुल हो जायँ । यह तो भगवान् की कृपा है, जो इन्द्रियाँ बाहर की चीजों को देखती है।



कमल - क्या बनाने वाला बनी हुई चीजों में व्यापक होता है? घड़ी-साज ने घड़ी बनाई, घड़ी अलग है, घड़ी-साज अलग है। हलवाई ने मिठाई बनाई, मिठाई अलग है, हलवाई अलग है । दुनियाँ का नियम तो यह है कि बनाने वाला बनी हुई चीज से अलग होता है । परमात्मा सबमें व्यापक भी हो और संसार को भी बनाता हो भला यह कैंसे हो सकता है? दूसरे बिना हाथ पैर के चीजें बन कैसे जाती हैं, समझ में बात आती नहीं है । इनके कर्तापन की जहाँ तक जिम्मेदारी है, वहाँ तक उनकी क्रिया और वे पदार्थ के साथ है । जहाँ वे न हो वहाँ उनसे सम्बन्ध रखने वाली क्रिया हो ही नहीँ सकती । जैसे घड़ीसाज ने घड़ी बनाई, बनाने का मतलब ही है, कि उसके पुर्जो को परस्पर में जोड़कर उसमें क्रिया दे दी । घड़ीसाज ने पुर्जे को जोडा है, पुर्जो को बनाया नहीं । पुर्जो के बनाने वाले दूसरे कर्ता है । घड़ीसाज घड़ी के पुर्जो को जोड़ते समय घड़ी के साथ था । अगर न होता तो घड़ी के पुर्जे परस्पर में मिलकर घड़ी का रुप धारण नहीं करते । इसी तरह पुर्जो के कर्ता और उनकी क्रिया उन पुर्जो के साथ है । यदि वे पुर्जो के साथ न होते तो पुर्जे न बनते । इसी भाँति जिस लोहे से पुर्जे तैयार किये गये उस लोहे को खान से निकालने वाले और उसे गलाकर साफ करने वाले, खान, भट्टी और लोहे के साथ थे । यदि वे साथ न होते तो न तो खान से लोहा निकलता और न साफ हो सकता था । इससे मालूम हुआ कि घड़ी बनाने में केवल एक कर्ता का साथ व हाथ नहीं है, बल्कि अनेकों कर्ताओं की क्रिया से वह घड़ी तैयार हुई है । जिस कर्ता से सम्बन्ध रखने वाली जो क्रिया थी वह कर्ता उसके साथ था । इसी तरह हलवाई, सुनार आदि कर्ताओं की अवस्था है वे सब अपनी-अपनी क्रियाओं के कर्ता है । शेष कर्ता तो और ही हैं जिन्होंने वह सामग्री पैदा कर दी जिससे हलवाई, सुनार आदि अपनी-अपनी क्रियाओं को सफल कर सकें और पदार्थ बना सकें ।


विमल - अब तुम समझ गये होंगे कि मनुष्य जिस चीज को बनाता है, उसमें केवल उसी का हाथ नहीं होता, बल्कि अनेकों मनुष्यों का हाथ होता है, तब जाकर चीज बनती है । ऐसा क्यो होता है? इसलिए कि मनुष्य अल्पज्ञ और अल्प शक्तिमान है । वह अनेक कर्ताओं का सहयोग पाने पर ही किसी वस्तु को बना पाता है । और वे कर्ता अपनी-अपनी क्रियाओं के साथ होते हैं । अब सोचो जब मोटे-२ कामों में उनके कर्ता साथ होते है तो मोटी और बारीक से बारीक सृष्टि बनाने में उसका कर्ता ईश्वर उनके साथ क्यो न होगा? सृष्टि केवल सूर्य, चन्द्र, तारे, पहाड़, वृक्ष, नदियों, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि का ही नाम तो नहीं है, और भी अनन्त और सूक्ष्म ऐसी चीजे है जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते । वे सभी चीज सृष्टि कहलाती है । देखो । पाँच स्थूल भूत, पाँच सूक्ष्म भूत, पाँच तन्मात्राये - अर्थात शब्द, स्पर्श, रुप, रस, गन्ध, अनेक प्रकार के अणु परमाणु जिनसे सृष्टि की रचना होती है, अगर उनका जोड़ने वाला उनके साथ न हो, तो क्या वे पदार्थों का रुप धारण कर सकेंगे । संसार की समस्त चीजें प्रकृति के परमाणुओं से बनी हैं । संसार में आज तक कोई ऐसा यन्त्र नहीं बना, जो परमाणुओं को पकड़ कर जोड़ सके । परमाणु वे सूक्ष्म तत्व हैं जिनके टुकडे नहीं हो सकते । परमात्मा उन परमाणुओं के बाहर भीतर सर्वत्र विद्यमान है, इसलिए वह उन्हें छोड़कर सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल जगत बना लेता है । संसार के जड पदार्थों में परमाणु सबसे सूक्ष्म हैं । परमात्मा उनसे भी अधिक सूक्ष्म है और इसलिए यह उनमें व्यापक है । अगर व्यापक न होता तो सृष्टि बनाने में उसे भी अन्य कर्ताओं की क्रिया का आश्रय लेना पड़ता, जैसा कि संसार के मनुष्यादि प्राणियों को अन्य कर्ताओं व क्रियाओं का सहारा लेना पड़ता है। अत: सिद्ध हुआ, प्रत्येक कर्ता अपनी क्रिया में व्यापक ही होता है, जहाँ तक उसकी क्रिया की जिम्मेदारी है । रहा ये प्रश्न कि बिना हाथ पैरों के चीजें कैसे बन जाती हैं? अगर यह मान लिया जाय कि हर चीज हाथ पैरों से ही बनती है तो जो हाथ पैर चीज बनाते हैं, वे हाथ पैर किससे बने हैं? हाथ, पैर भी तो बने हुये हैं । जब हाथ पैर बिना हाथ पैरों के बन सकते हैं, तो सृष्टि के अन्य पदार्थ बिना हाथ पैरों के क्यों नहीं बंन सकते! मै पूछता हूँ माता के पेट में जो बच्चा बन रहा है, क्या हाथ पैरो से बन रहा है? पृथ्वी पर नाना प्रकार के अंकुर उत्पन्न होकर वृक्ष का रुप धारण कर रहे हैं, क्या उन्हें हाथ पैरों से बनाया जा रहा है? और देखो हाथ पैर तो हाथ पैरों से ही सम्बन्ध रखने वाली चीज बना सकते हैं, दूसरी चीजें नहीं वना सकते । हाथ पैरो से छोटे -छोटे कीटाणु मच्छर और भुनगे तथा उनके सूक्ष्म अंग कैसे बन सकते हैं ? जिस पृथ्वी पर मनुष्यादि प्राणी रहते हैं । उसकी परिधि २५००० मील है, इससे भी लाखो-करोंडो गुणों बडे सूर्य बृहस्पति आदि ग्रह हैं, ये सबके सब हाथों से कैसे बनाए जा सकते हैं? इन समस्त पदार्थों को नियम पूर्वक बनाने वाला सर्वशक्तिमान सर्वव्यापक परमात्मा ही है । यही सारा कार्य नियम पूर्वक चला रहा है।



कमल - आप एक न एक नई बात निकाल देते हें। नियमपूर्वक क्या कार्यं चल रहा है? और क्या नियमपूर्वक चीजें बनी हुई हैं? मै देखता हूँ कहीँ ऊँचा पहाड़ है, कहीं नीची खाई है। कहीं भयानक जंगल है । कहीं रेतीला मैदान है । कहीँ झाड़, झंकार और झाड़ियां हैं । इनमें कौन सा क्रम और कौन सा नियम है? सब यूँ ही ऊबड़ -खाबड़ बेतरकीब और बेनियम संसार बना हुआ है, नियम पूर्वक जो कार्य होता है, वह एक ढंग के साथ होता है । मनुष्य मकान बनाता है, इसमें नियम पूर्वक चौक, आँगन, कमरे, रसोई घर, शौचालय की व्यवस्था करता है। माली बाग लगाता है, उसमें नालियों, क्यारियों, गमले, नहरें, रौस अनेक प्रकार के पेड़-पौधे नियम पूर्वक लगाता है । दुकानदार दुकान लगाता है, सारा सौदा नियम पूर्वक सजाता है । मनुष्यों के कार्य में तो नियम पाया जाता है लेकिन तुम बेढंगी और क्रम विरुद्ध सृष्टि को नियमपूर्वक बतलाते हो जो सरासर प्रत्यक्ष के विरुद्ध है । मेरी समझ में सृष्टि में कोई नियम नहीं है ।



विमल - सृष्टि में कोई नियम नहीं है, यह कहना बेसमझी का प्रमाण देता है । मै पूछता हूँ कि क्या कारण है कि सूर्यं पूर्व दिशा से उदय होता है और पश्चिम में अस्त हो जाता है? क्यों नहीं पश्चिम से उदय होने लगता, क्या यह नियम नहीं है? मनुष्य की बनाई हुई अच्छी से अच्छी घड़ी तेज सुस्त हो जाती है परन्तु परमात्मा की बनाई हुई सूर्य रुपी घड़ी में कभी एक सेकण्ड का भी अन्तर होता है? चंद्रमा के घटने, बढ़ने और छिपने का नियम कैसा अटल है? इसी नियम के आधार पर वर्षों आगे होने वाले सूर्य ग्रहण और चन्द्रग्रहण को बतलाया जा सकता है । इसी प्रकार अन्य ग्रहों और उपग्रहों का हाल है । जरा सोचो तो सही, क्या कारण है कि चने के बीज से चना ही पैदा होता है, गेहूँ नहीं? क्या कारण है आम से आम ही पैदा किया जा सकता है, सेव या सन्तरा नहीं? क्या कारण है कि बच्चा उत्पन्न होकर पहले जवान होता है बाद में वृद्ध? क्यों नहीं पहले बूढा होकर जवान होता है बाद में बच्चा होता है? क्या कारण है कि आँख से दिखाई देता हैं सुनाई नहीं देता क्या कारण है नाक सूंघ सकती है, चख नहीं सकती? इन सबके लिये नियम ही तो हैं । यह कह देना कि कहीं पहाड़ है, कहीं नदियाँ हैं, कहीँ समुद्र है, कहीं ऊंचे-नीचे टीले है, कहीं झाड़-झंकार है, इसलिये सृष्टि नियमबद्ध नहीं, कोरी अज्ञानता है । तुम अपनी बुद्धि के पैमाने से सृष्टि को नापते हो । संसार का नियम है कि जो बात जिसकी समझ में नहीं आती वह उसमें दोष निकालता है । एक चींटी जब मनुष्य के शरीर पर चढ़ जाती है और सिर पर पहुँचती है, तो बालों में उलझ कर सोचती है कि शरीर कैसा बे नियम बना हुआ है? कैसा सिर पर झाड़-झंकार है? सिर से उतर कर नीचे माथे पर जाती है तो सोचती है, यहीं कैसा साफ मैदान पड़ा है । फिर जरा नीचे उतरती है तो आँखों के भौ में उलझकर सोचती है, यहाँ कैसा कांटों का जाल बिछा हुआ है । फिर जरा नीचे उतरती है और आँखों के पास आती है तो सोचती है, अरे! यहाँ कैसी खाई बना रक्खी है । फिर जरा नीचे उतरती है और नाक पर चढ़कर बोलती है यहाँ पहाड़ खडा कर रखा है । नाक के नीचे उतर कर दोनों छेदों को देखकर कहती है यहाँ सुरगें खोद रक्खी है? और नीचे को उतरती है और मूछो में उलझकर बोलती है यहाँ घना जंगल खड़ा कर रखा है । वह चींटी अपनी बुद्धि के नाप से मनुष्य के शरीर को नापती है, और उसे बेनियम बताती है । यदि चींटी की सुविधा के लिए मनुष्य के शरीर को बिल्कुल सपाट और साफ मैदान कर दिया जाय, नाक के छेद बन्द कर दिये जाये, मूंछ और सिर के बाल साफ करके आँखों के गड्ढे भर दिये जायें, नाक को काटकर माथे की तरह सारी शक्ल को समतल कर दिया जाय, तब कहीं उसके लिये मनुष्य शरीर नियमपूर्वक हो सकता है । मैं पूछता हूँ कि यदि चींटी की भावना और बुद्धि के अनुसार मनुष्य का शरीर बना दिया जाए तो वह मनुष्य, मनुष्य रहेगा? और उसमें वह सौन्दर्य और ज्ञानेन्द्रियाँ तथा कर्मेन्द्रियों का नियम पूर्वक व्यवहार रहेगा? हरगिज नहीं । दूसरा उदाहरण लो । एक कारीगर मशीन बनाता है । उस मशीन में हजारों पुर्जे हैं । कोई पुर्जा गोल है, कोई लम्बा है, कोई टेढा है, कोई तिरछा हैं कोई बहुत बडा है, कोई बहुत छोटा है । एक अज्ञानी उस मशीन को देखकर कहता है कि मशीन के पुर्जे बनाने वाला कैसा बेवकूफ है । कोई पुर्जा कितना बड़ा, कोई कितना छोटा कोई कितना लम्बा, कोई जितना चौडा, कोई गोल, कोई चपटा यह कैसा बेनियम सिलसिला जोड़ रक्खा है, यह कैसे बेतरबीब पुर्जे बनाये हैं? बताओ उस मनुष्य का ऐसा सोचना क्या बुद्धिपूर्वक है? मशीन के बनाने वाले ने जिस -जिस प्रकार के पुर्जे बनाना ठीक समझा उसी प्रकार के बनाये । वह जानता था कि इसी प्रकार के पुर्जो से मशीन चल सकेगी । और वह प्रयोजन सिद्ध हो सकेगा जिसके लिए मशीन बनाई गई | अगर वह सारे पुर्जे एक जैसे ही गोल या लम्बे बना देता तो मशीन चल सकती थी? कभी नहीं । यही हाल परमात्मा और उसकी सृष्टि का है । इस सृष्टि रुप मशीन में कहीं बहुत बड़े-बड़े पहाड़ है कहीं छोटे-२ टीले है, कहीं समुद्र हैं, कहीं नदियाँ है कहीं वन और झाडियाँ हैं । परन्तु इस सृष्टि रुपी मशीन का एक प्रयोजन है - जीवों का कल्याण । अज्ञानी मनुष्यों को सृष्टिरुपी मशीन के पुर्जे भौंड़े-भद्दे और बेनियम नजर आते हैं, क्योकि वह न तो जगत् का प्रयोजन समझते हैं और न सृष्टि रुपी मशीन के समुद्र, नदी, पहाड़ आदि पुलों की उपयोगिता समझते हैं । माली और दूकानदार आदि का उदाहरण तुमने दिया है, उनके नियम अत्यन्त छोटे हैं, इसलिये उन्हें तुम शीघ्र ही समझ लेते हो । सृष्टि के नियम विशाल और अत्यन्त सूक्ष्म जिन्हें तुम नहीं समझ पाते हो । जरा विचार तो करो, जिस मस्तिष्क से संसार के मनुष्य नियम बनाते है वह मस्तिष्क भी तो उसी नियामक प्रभु का बनाया हुआ है, जिसने सृष्टि के असंख्य नियम बनाये हैं । अगर संसार के नियम न होते, तो परमात्मा को मानता ही कौन? सृष्टि के अटल नियम ही सृष्टिकर्ता ईश्वर का प्रमाण देते है |


कमल - अच्छा, सृष्टि तो ईश्वर ने बनाई, ईश्वर को किसने बनाया?


विमल - बने हुए पदार्थ कार्य होते है, उनको उपादान कारण और कर्ता की आवश्यकता होती हैं, ईश्वर बना हुआ पदार्थ नहीं है वह अनादि और सनातन हैं । अतएव यह प्रश्न ही नहीं है उठता कि ईश्वर को किसने बनाया । जो स्वयं कर्ता है, उसका कर्ता कौन? यदि कर्ता का कर्ता हो, तो कर्ता नहीं रहता, कारण बन जाता है । कर्ता वह है जो स्वतन्त्र हो । जो बने हुए पदार्थ हैं यह कर्ता नहीं होते मनुष्यादि प्राणी जो कर्ता कहाते है उनका शरीर कर्ता नहीं है साधन है । कर्ता आत्मा है । 'स्वतन्त्र: कर्ता' वही स्वतन्त्र हैं।


कमल - अच्छा कर्ता का कर्ता न सही, लेकिन तुम यह बतलाओं, हमें ईश्वर को क्यों मानना चाहिए । हम उसकी स्तुति, प्रार्थना, उपासना और भक्ति क्यों करें । हमारे जीवन से उसका सम्बन्ध क्या है?



विमल - इस पर विचार कल किया जायगा।


| ओ३म् |

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